पुराने दोस्त
जिन्हें याद कर रहा हूं वे सभी अब इस संसार में नहीं हैं: उन्हें एक साथ याद करते हुए मैं ही अब तक बचा हुआ हूं. यह साफ़ देख पाता हूं कि उनकी संग-सोहबत ने मेरे जीवन को कैसी गरमाहट, आलोक और सार्थकता से भरा. यह निरा संयोग नहीं है कि वे सभी साहित्य से जुड़े लोग थे. यह मेरा सौभाग्य है कि मेरे सभी दोस्त साहित्य और कलाओं की दुनिया से ही आए-बने. अन्य क्षेत्रों के कुछ लोग साथी तो थे पर उन्हें दोस्त नहीं कहा जा सकता. इन साथियों ने भी जब-तब मदद की और कभी-कभार सहारा भी दिया पर उनसे अन्तरंगता नहीं हो पायी. वे उन दोस्तों जैसे नहीं थे कि जिनसे सब कुछ, बिना संकोच या झिझक के कहा, साझा किया जा सके.

सागर में साहित्यिक जीवन के आरम्भ से ही रमेशदत्त दुबे मेरे सहचर थे. उन दिनों सागर में 1953-1960 तक हर जगह हम साथ होते थे. किसी सार्वजनिक आयोजन में हममें से किसी को कभी अकेला नहीं देखा गया था. रमेश बुन्देलखण्डी संस्कृति में रसे-पगे थे और उसका कुछ मुझे भी उनके माध्यम से मिला. उन जैसा सर्वथा निष्कलुष, निश्छल और विश्वास्य फिर जीवन में कोई दूसरा नहीं मिला. जितेन्द्र कुमार मुझसे वरिष्ठ थे और कविता तथा साहित्य के मामले में बहुत सख़्त थे: अपने प्रति और दूसरों के प्रति भी. वही ऐसे थे जो जब-तब मेरी कविता और आलोचना की तीख़ी आलोचना कर सकते थे. वे शायद कभी किसी के रौब में नहीं आये. रमेश, राजा दुबे, आग्नेय और प्रबोध कुमार के साथ मिलकर हमने नये साहित्य पर एकाग्र पुस्तक-पत्रिका ‘समवेत’ 1958 में निकाली और उसके दो अंक निकले.
दिल्ली आने के बाद सैण्ट स्टीवेन्स कॉलेज में उर्दू कवि दीन दयाल को छोड़कर कोई मित्र नहीं बन सका. मित्र बने हंसराज कॉलेज के कृष्ण गोपाल वर्मा. उनकी रुचि का वितान ग़ालिब से लेकर उत्तरआधुनिकता तक फैला था. वे दिल्ली में फिर 2003 से एक ही हाउसिंग सोसायटी में पड़ोसी भी हुए. पर पहली जैसी सोहबत नसीब न हुई.
भोपाल में 1972 के मध्य में मैं पहुंचा था. उस दौरान दोस्ती हुई सोमदत्त, भगवत रावत, सत्येन कुमार, फ़ज़ल ताबिश और शरद जोशी से. सभी में बड़ी गरमाहट थी और सभी से मध्य प्रदेश में संस्कृति के क्षेत्र में कुछ नया करने में भरपूर सहयोग मिलना शुरू हुआ. शरद जोशी जल्दी ही बिदक गये और दोस्ती छोड़कर शत्रु हो गये: उन्होंने यह शत्रुता वे जब तक जीवित रहे तब तक निभायी. एक बार मैंने एक प्रश्न के उत्तर में यह कटूक्ति की थी कि मेरा सौभाग्य है कि मैं शरद जी के ध्यान से कभी उतरता नहीं और उनका दुर्भाग्य है कि वे मेरे ध्यान में कभी आते नहीं.
सोमदत्त यों तो पशु चिकित्सा विभाग में अधिकारी थे पर वे मुझे कई व्यावहारिक सलाहें देते रहे: त्रिलोचन भोपाल आने पर महीनों उनके घर रहे और उन्होंने साहित्य परिषद् के सचिव और ‘साक्षात्कार’ के संपादक के रूप में बहुत अच्छा काम किया. वे युगोस्लाविया गये थे और वहां वास्को पोपा से मिले थे. भगवत रावत घरेलू क़िस्म के व्यक्ति थे और दोनों ही मित्र प्रगतिशील आस्था के थे. उर्दू शायर फ़ज़ल ताबिश उन दोस्तों में थे जो अगर भोपाल में मैं न होउं तो बिना किसी हिचक या पूर्वसूचना के शहर में आये लोगों के मेज़बान हो जाते थे. सत्येन कुमार कड़क क़िस्म के थे पर साहित्य और रंगमंच में हमेशा साथ देते रहे. भोपाल से दिल्ली आने के बाद फिर ऐसे दोस्त नहीं मिले जिनसे झगड़े भी होते थे, जो फिर भी दोस्ती में, उसकी गरमाहट में कभी कमी नहीं आने देते थे. ये ऐसे भी थे जिन्हें आपसे दोस्ती के अलावा किसी और चीज़ की दरकार नहीं थी. जब भारत भवन, पूर्वग्रह आदि के विरुद्ध अभियान चले तो हर बार उन्होंने मदद की और अपनी वैचारिक रुचि की परवाह न कर साथ दिया. मेरा सौभाग्य कि ऐसे लोग दोस्त की तरह मिले. अब अपनी आयु के आठ दशक पूरा करते हुए मैं लभगभ मित्रहीन हूं. शायद मुझमें कोई खोट है कि दिल्ली में ऐसे लोग नहीं मिले. यह भी कि शायद महानगरों में ऐसे दोस्त नहीं होते हैं या बहुत कम और मुश्किल से.
फलितार्थ
किसानों के इतना लम्बा चल रहे आन्दोलन का क्या नतीजा निकलेगा यह कहना मुश्किल है. पर उसके कुछ फलितार्थों पर विचार किया जा सकता है. पहला तो यही कि हमारे लोकतंत्र के इतिहास में इतना निडर, इतना अडिग और अटल कोई और विरोध शायद ही पहले हुआ हो. किसान अपनी मांगों को लेकर बिलकुल स्पष्ट हैं और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक किसी तरह के समझौते के लिए तैयार नहीं हैं. दूसरा यह कि किसानों में, ज़मीन से जुड़े होने के कारण, सचाई की तीख़ी समझ है और वे सरकारी झांसों और धमकियों में नहीं आ रहे हैं. यह एक तरह की नयी नागरिक सजगता का उदाहरण है. मध्यवर्ग की सचाई की अनदेखी और झूठों और झांसों के लिए उसकी ललक पर यह सजगता एक धिक्कार-टिप्पणी की तरह है. तीसरी बात यह दिखायी दे रही है कि अगर इस देश में लोकतंत्र को व्यापार और कार्पोरेटाइज़ किये जाने की स्पष्ट और निर्लज्ज मुहीम चल रही है तो उसका प्रतिरोध मध्यवर्ग नहीं करनेवाला क्योंकि वह कुछ टुच्ची सुविधाओं के लिए देश को बड़े व्यापारियों को देश बेचे जाने से आपत्ति नहीं कर रहा है.
चौथी बात यह है कि सत्ता अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए किसी हद तक जाने को तैयार है और मध्यवर्ग को इस विद्रूप का तमाशाई बनने से उजर नहीं. पांचवीं बात यह है कि खेती-किसानी से संबंधित जो लम्बी चली आ रही लोकपरम्परा है जिसमें आख्यान, मिथक, क़िस्से-कहानियां, जातीय स्मृतियां, गीत, हस्तशिल्प, तरह-तरह की कारीगरी, तीज-त्योहार आदि हैं वे सब भी ग़ायब हो जायेंगे अगर खेती-किसानी का यह कार्पोरेटीकरण रोका नहीं गया. इसको लेकर भी मध्यवर्ग में कोई चिन्ता नहीं दीख पड़ती. छठवीं बात है कि किसानों ने दिखा दिया है कि बहुसंख्यकतावाद को पोसनेवाली सत्ता के विरुद्ध हम लाचार या निरूपाय नहीं है.
सातवां और संभवतः सबसे दूरगामी फलितार्थ यह है कि इस आन्दोलन की अहिंसा और लगातार अपनी जान तक देने की बलिदान-भावना ने, एक तरह से, महात्मा गांधी के दो प्रतिरोधक आविष्कारों सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा का हमारे समय में पुनराविष्कार किया है. इसके दो अर्थ हैं: उन्हें हाशिये पर डालने की सारी नीच हरकतों के बावजूद लोकमानस में गांधी-तत्व गहरे पैठा हुआ है और अहिंसक प्रतिरोध याने सत्याग्रह की सम्भावनाएं अब भी बची और प्रासंगिक हैं. जो भी हो, इससे किसी समझदार और ज़िम्मेदार नागरिक का इनकार करना मुश्किल है कि हमारे लोकतंत्र में यह निर्भय अहिंसक नागरिक के उदय और व्याप्ति का, उसके प्रभाव का क्षण है.
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