विश्वासघात नहीं
आयु के अस्सी वर्ष 16 जनवरी को पूरे कर लिये. इनमें से साठ से अधिक वर्ष कविता के साथ गुजारे हैं. उसके साथ, उसको भरसक रचते हुए, पर उससे अधिक दूसरों की कविता से प्रतिकृत होते हुए. न मैंने कविता का साथ छोड़ा, न कविता ने कभी मेरा साथ छोड़ा. अंधेरे समयों में उसकी रोशनी मिलती रही और जब कोई और पास न था वह थी, बिना संकोच, उदार और कई बार अकस्मात्, अप्रत्याशित. बहुतों ने विश्वासघात किया, राजनीति ने, धर्म ने, मित्रों ने, लेखक बन्धुओं ने, संस्थानों ने, जिनमें से कुछ मैंने ही कभी उत्साह से स्थापित और संचालित की थीं. पर कविता ने कभी नहीं. सीमित अवधि और जगह के बरक़्स वह असीम और हर जगह थी. जब बहुत सारे चुप्पी साथ गये, तब उसने हर पुकार का उत्तर दिया. अकेला हुआ पर यह आश्वस्ति हमेशा थी कि कविता के साथ अकेला हूं. कभी वह आशा का वितान थी, कभी निराशा का कर्तव्य. पर वह हमेशा थी, निरन्तर, अबाध, अविराम सहचर. जब कभी भयातुर हुआ उसने अभय किया, निर्भय होने का उद्वेलन दिया. जब कभी किसी क़ैद में फंस गया लगता था, उसने मुक्ति का गवाक्ष खोला और ताज़ी हवा दी.

कविता ने समय में गहरे पैठने की जुगत और समय से बाहर जा सकने का दुस्साहस भी दिया. जीवन का अपार स्पन्दन उसमें हमेशा अनुभव किया जा सकता था और अक्सर अपने होने का भाषा में सत्यापन भी उससे मिलता रहा. यह भाव प्रबल रहा कि अगर मैं कविता में, कविता के साथ नहीं तो मैं कहीं और हो ही नहीं सकता. वह है इसी से मैं हूं, मैं हो सकता हूं. कविता मुझे सम्भावना में बदल देती रही है. मेरी अपनी कविता उतनी नहीं जितनी दूसरों की कविता. कविता जीवन को, उसकी मरणीयता के बावजूद, स्मरणीय बना सकती है. कविता नश्वरता के विरुद्ध मानवीय संघर्ष है, उस नश्वरता का अतिक्रमण है. कवि भौतिक जीवन में भले मर जायें अपनी कविताओं में जीवित रहते हैं.
लगभग दस महीनों से घरबन्द रहा हूं. इसी दौरान जाना कि कविता आपके भौतिक अलगाव या एकान्त को सहज ही सामुदायिकता से जोड़ती है. याद आता है कबीर का कहना: ‘हमही बहुरि अकेला’. फिर यह भी कि ‘सुन्न सिखर पर दियना बार’. ऐसा दुस्साहस बिरले कवि ही कर पाते हैं पर लक्ष्य और आदर्श वह सभी का है. कविता में होना साथ होना है: जीवन के स्पन्दन से, उसकी छवियों से, उसके सुख-दुख से, उसकी लय और गति से, शब्दों की आभा और गरमाहट से. वह हमें याद दिलाती है, हमारी यादों को सुरक्षित रखती है और उसमें कई बार कोई मोहक बदलाव भी कर देती है.
इस अहसास से भी छुटकारा नहीं मिलता कि दूसरों ने, आरम्भ से लेकर आज तक, सदियों के आर-पार मुझसे बेहतर कविता लिखी है. सौभाग्य यही है कि ऐसी विपुल-समृद्ध कविता से अभी भी, उसके प्रति प्रणत और विनयशील होकर, सीखा जा सकता है, कि हम कविता को सच कैसे बनायें.
साहित्य और मुक्ति
साहित्य को कई तरह से ज़रूरी और उचित ठहराने के लिए जो सबसे बड़ा दावा किया जाता है वह यह है कि साहित्य मुक्ति देता है. यह भी जोड़ा जाता है कि वह व्यापक मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है. ऐसी कोई भी मुक्ति अधूरी होगी जिसमें साहित्य की मुक्ति शामिल न हो. पहले ज़माने में जब साहित्य पर समसामयिक होने का इतना दबाव न था जितना कि अब है. तब साहित्य की मुक्ति का विचार एक अन्य और अपेक्षाकृत बड़े आयाम में भी होता था. तब यह माना जाता था कि साहित्य का एक काम हमें नितान्त समसामयिकता के चंगुल से मुक्त करना भी है. अब शायद यह कहना समीचीन होगा कि साहित्य हमें आज शाश्वत की कारा से मुक्त कर समकालीनता के आकाश में निर्बाध विचरण के लिए मुक्त करता है. पर क्या मनुष्य की शाश्वत के संस्पर्श की भूख अब समाप्त हो गयी? क्या अपने समय में बिंधकर रह जाने को किसी भी तरह से मुक्तावस्था कहा जा सकता है? बीसवीं शताब्दी में जो मूर्धन्य हुए हैं उनमें से अधिकांश को समकालीनता में रसे-पगे, भीषण रूप से नवाचारी होते हुए, शाश्वत को भी साधने की कोशिश करते देखा-समझा जा सकता है. उनमें अनेक दृष्टियों और शैलियों के मूर्धन्य शामिल हैं - रिल्के, काफ़्का, प्रूस्त, यीट्स, इलियट, पाज़, नेरूदा, बोनफुआ, काम्यू, एलुआर, अदोनिस से लेकर महमूद दरवेश जैसे हाल के कवि तक.
सच तो यह है कि हमें, कम से कम, साहित्य में दोनों समय चाहिये: अपना समय जो बीतता रहता है और वह सारा समय जो यों तो बीत गया पर फिर भी अपने बुनियादी सत्वों में कभी व्यतीत नहीं होता, जो शाश्वत है. अलबत्ता यह भी सही है कि शाश्वत का मार्ग समकालीनता से होकर ही निकलता है: सीधे, बिना समकालीन हुए, शाश्वत तक पहुंचना संभव नहीं है. साहित्य की शायद असली या कम से कम एक बड़ी मुक्ति इसी में है कि वह हमें नितान्त समसामयिकता के कंटीले बाड़े से मुक्त करे और शाश्वत के एकतान आधिपत्य से भी. यह दुहरापन उसकी मुक्ति को जटिल बनाता है: वह जितनी कठिन है पाने में, उतनी ही जटिल है समझने में. साहित्य में जो अपने समय के पार जीवित रहता है वही असल में जीवित रहता है और ऐसा जीवन इस दुहरी मुक्ति के बिना हासिल नहीं.
हमारा सामान्य अनुभव यही बताता है कि हमें वह प्राचीन साहित्य आकर्षित करता और रसविभोर करता है जो समकालीन सा लगता है अपनी अन्तर्ध्वनियों और आशयों में. और वही समकालीन साहित्य हमें अभिभूत करता है जिसकी अभिभूति में हमें शाश्वत का संस्पर्श मिले. कई बार लगता है कि लेखक के बजाय पाठक इस दुहरी प्रक्रिया का अनुभव अधिक आसानी से कर पाते हैं. कबीर और तुलसी उन्हें समकालीन लगते हैं और निराला-प्रसाद, अज्ञेय-शमशेर-मुक्ति बोध कुछ शाश्वत. वह असल में मुक्त है जो साहित्य के सदियों में फैले वितान में निर्बाध विचर सकता है और अपनी रुचि-दृष्टि-अनुभव के अनुरूप कुछ सहज ही पा सकता है.
होने की व्यर्थता
एक निर्मम सत्ता के कुछ असंवैधानिक क़ानूनों को लेकर भारत भर के किसान और उनके संगठन राजधानी की सीमाओं पर, कड़ी ठंड, असह्य वर्षा आदि को झेलते हुए सजग निर्भय नागरिकता का एक नया अहिंसक शास्त्र, सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह का नया संस्करण रच रहे हैं. हममें से अधिकांश कोरोना प्रकोप, अपने को हर हाल में सुरक्षित रखने की अदम्य इच्छा के रहते उनका भौतिक रूप से साथ नहीं दे पा रहे हैं. इनमें वे लोग भी शामिल हैं जिनमें से बहुतों के पिता या दादा किसान-परिवार के ही थे. हम अपने घरों में बंद आग ताप रहे हैं, अपने को गरम रखने के कई उपाय कर रहे हैं, काढ़ा बना-पी रहे हैं. लेकिन हममें यह हिम्मत नहीं कि हम राजधानी की सरहदों तक जाकर अपना समर्थन व्यक्त कर सकें. कुछ लेखक-बन्धु और लेखक-संगठन गये हैं. पर लेखकों-अध्यापकों-पत्रकारों-डाक्टरों-वकीलों -किरानियों-दुकानदारों-व्यापारियों आदि की बड़ी संख्या है जो वहां नहीं गये हैं. कुछ, अलबत्ता ऐसे हैं जो बढ़ी आयु या किसी बीमारी की वजह से नहीं जा पाये हैं.
ऐसे अवसर पर अपनी असमर्थता को ढांकने-बचाने के कई तर्क हम गढ़ लेते हैं. सब लोग भौतिक रूप से किसी आन्दोलन में शामिल नहीं हो सकते क्योंकि विरोध प्रगट करने का यही एक प्रकार नहीं है. लेखक-कलाकार तो लिखकर-रचकर अपना विरोध या किसी बड़े लक्ष्य से अपनी सहानुभूति या प्रतिबद्धता व्यक्त कर सकते हैं, ऐसा सोचना ग़लत नहीं है. पर यह इस और संकेत करता है कि बौद्धिक-रचनात्मक कर्म और नागरिक कर्म के बीच, हमारे समय में, दूरी बढ़ती गयी है. कई साधारण लोग ऐसे कर्म को नागरिक कर्म मानते ही नहीं है. इनमें से कई उस राजसत्ता के साथ हैं जो आंदोलन करने वालों को टुकड़े-टुकड़े गैंग हिकारत से कहकर लांछित करती रहती है.
हममें से कुछ को ऐसे अवसरों पर एक तरह का व्यर्थता बोध सताता है और तब शब्द के कर्म होने की हमारी आस्था में दरार सी पड़ने लगती है. शब्द अगर कर्म है तो व्यापक नागरिकता ऐसा क्यों नहीं मानती? स्वयं हमको भी यह सन्देह होने लगता है कि शब्द को कर्म मानना शायद एक बौद्धिक अतिरेक है. इन पंक्तियों को लिखते समय मैं इससे इनकार नहीं कर सकता कि ऐसी फांक उभर रही है: व्यर्थता का तनाव सार्थकता से अलगाव लगने लगा है.
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