क्यों पढ़ें-पढ़ायें

सारे संसार को एक विराट भूमंडी बनाने की जो तेज़ मुहीम अबाध गति से चल रही है, उसने हर कहीं मानविकी के अध्ययन की ज़रूरत पर सवाल खड़े कर दिये हैं. शिक्षा को उपकरणात्मक बनाने का उत्साह विचारधाराओं के आर-पार फैला है और यह सवाल अब बार-बार पूछा जा रहा है कि साहित्य पढ़ने-पढ़ाने से क्या हासिल? उससे छात्रों को किसी नौकरी या काम के लिए योग्य या समर्थ बनाने में क्या मदद मिलती है? हमारी शिक्षा-व्यवस्था में लिबरल आर्ट्स की जगह लगातार कम और अवमूल्यित हो रही है. यह धारणा दशकों से व्‍यापक होती रही है और अब उस मुक़ाम पर आ गई है जहां मानविकी, विशेषतः साहित्य, पढ़ना बेकार मानने की वृत्ति व्यापक और निर्णायक हो रही है.

हाल ही मैं ‘बाउंड्री 2’ नामक पत्रिका में प्रकाशित प्रसिद्ध अमरीकी आलोचक-अध्यापक जे हिलिस मिलर का एक इंटरव्यू पढ़ रहा था. उसमें एक हवाला ‘अमेरिकन अकैडमी आव् आर्ट्स एंड साईसेज़’ की एक रिपोर्ट का है जिसमें कहा गया है कि मानविकी अच्छी है क्योंकि उससे राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञों को भविष्य में होने वाले युद्धों के लिए योजना बनाने में मदद मिलती है! इसका प्रखर प्रतिवाद करते हुए मिलर साहित्य पढ़ने के तीन कारण बताते हैं. पहला कि साहित्य पढ़ने का शुद्ध आनन्द या रस होता है और उससे हमें कल्पना-लोक में रहने का अवसर और अनुभव होता है. मानवीय स्वभाव में कुछ ऐसा बद्धमूल है जो उसे उपन्यासों और कविता की ओर आकर्षित करता है. दूसरा यह कि उससे हम वास्तविक संसार और सांस्कृतिक इतिहास के बारे में सीखते हैं. साहित्य से आप सामाजिक संबंधों और सामाजिक नियमों के बारे में भी जान पाते हैं. तीसरा कारण है कि साहित्य आलोचनात्मक ढंग से सोचने में प्रशिक्षित करता है. यह आलोचनात्मक ढंग से सोचना अन्ततः जीवन में अन्तरित होता है और बहुत देर और दूर तक हमारे समय में राजनेताओं और अन्य माध्यमों द्वारा प्रचारित-प्रसारित झूठों को समझने में हमारी मदद करता है.

इन कारणों को बताते हुए मिलर इस अमरीकी सचाई का विस्तार से उल्लेख करते हैं (यह इंटरव्यू जुलाई 2013 को लिया गया था) कि बहुत सारे अमरीकी मानने लगे हैं कि ओबामा मुसलमान हैं और अमरीकी नागरिक नहीं हैं, जलवायु परिवर्तन कुछ वैज्ञानिकों द्वारा फैलाया गया मनगढ़ंत है और ओबामाकेयर विफल होना तय है और उसमें अरबों डालर बेकार जायेंगे. अगर हम भारतीय परिस्थिति विशेषतः उत्तर भारतीय परिस्थिति देखें तो स्पष्ट है कि बड़ी संख्या में लोग, भक्तिभाव से, यह मानने लगे हैं कि हिंदुओं के साथ ज़्यादती होती रही हैं, कि नोटबंदी अपने लक्ष्यों में सफल रही है और अनेक सार्वजनिक संपत्तियों को निजी हाथों में सौंपने से हमारा विकास तेज़ होगा. अगर इस ठोस सचाई को ध्यान में रखें तो साहित्य पढ़ने-पढ़ाने की क्या स्थिति सामने आती है.

जो लोग साहित्य अपने से, बिना किसी अध्यापन आदि का सहारा लिये, पढ़ते हैं, वे तो उससे आनन्द पाते होंगे पर जो स्कूल या विश्वविद्यालय स्तरों पर साहित्य पढ़ते हैं, उन्हें शायद ही साहित्‍य का ऐसा आस्वाद मिल पाता है. मिल पाता तो वे शिक्षा के बाद के जीवन में भी साहित्य में कुछ तो रमते जब कि वे अधिकांशतः नहीं रम पाते. इस नतीजे से बच पाना मुश्किल है कि साहित्य इन छात्रों को निरानन्द और नीरस छोड़ता है.

इस समय सत्ता के जो प्रचंड भक्त हैं उनमें साहित्य के छात्र भी काफ़ी होंगे. बढ़ती ग़रीबी, अन्याय, गिरती अर्थव्यवस्था, कई गुना बढ़ गयी बेरोज़गारी आदि की सचाई से उनकी भक्ति कैसे मेल खाती है? अगर वे वास्तविक संसार और सांस्कृतिक इतिहास से अवगत हुए होते तो न तो इन सचाइयों से मुंह मोड़ते और न ही सामाजिक समरसता के बरक़्स सांप्रदायिकता और उग्र धर्मांधता को बढ़ावा देते नज़र आते. ज़ाहिर है कि साहित्य पढ़कर वे सांस्कृतिक रूप से निरक्षर बने रहते हैं और हिंदी साहित्य की मुख्य धारा में जो व्यवस्था-विरोध रहा है उससे अछूते.

क्या साहित्य पढ़ने से हमारे छात्रों में आलोचनात्मक ढंग से सोचने की वृत्ति उभरती या सशक्त होती है? उसका उत्तर तो ऊपर ही है. हिन्दी अंचल में जितनी कट्टरता, संकीर्णता, हिंसा इधर फैली है उससे स्पष्ट है कि आलोचनात्मक ढंग से सोचना बढ़ने की बजाय बुरी तरह से घटता गया है. इस सबमें जो दुखद सामान्यीकरण है उसके कुछ अपवाद भी निश्चित ही हैं, कई बार हम उन्हें जान या पहचान नहीं पाते. उनके होने से साहित्य पढ़ने-पढ़ाने का कुछ औचित्य तो बनता है पर उनका अपवाद होना यह भी साबित करता है कि हमारे समाज में साहित्य ठीक से पढ़े और पढ़ाये जाने के बजाय गहरे संकट और विद्रूप में फंस गया है.

गद्य की व्याख्या

यह सामान्यीकरण तो बिना संकोच किया जा सकता है कि हिन्दी में गद्य को पढ़ने, समझने ओर उसकी विशद सूक्ष्म व्याख्या करने की विधियां, कविता के मुक़ाबले, बहुत कम हैं. यह भी कि गद्य की अन्तर्ध्वनियां और आशय पकड़ने का काम बहुत कम हुआ है. कविता की तुलना में हम गद्य में अधिक विषय-केन्द्रित रहे हैं: उसकी व्याख्या में कथ्य का पलड़ा बहुत भारी रहा है. गद्य की विराट् उपस्थिति को देखते हुए यह समझ में आना थोड़ा कठिन है कि उस पर ठीक से और कई कोणों से ध्यान देने में आलोचना में इतनी कमी या कोताही या आलस्य क्यों है. यह कुछ ऐसा ही है जैसे कि सिनेमा पर लिखते समय होता आया है जहां तकनीक की बारीकियाँ और उसके संकेतों की पकड़ हमारी पहुंच से बाहर ही रही हैं, अक्सर तो कथासार ही काफ़ी होता आया है. किंतु गद्य केवल कथा नहीं है - वह अन्य अनेक रूपों में व्यक्त-विन्यस्त होता है. कथा के अलावा जो गद्य है उसकी अद्वितीयता और सूक्ष्मताओं पर हमारा ध्यान कम ही गया है.

मैं इन दिनों प्रसिद्ध फ्रेंच चिन्तक रोलां बाख़्त की अंग्रेज़ी अनुवाद में पत्रों, टिप्पणियों आदि की एक पुस्तक ‘अलबम’ पढ़ रहा हूं. 1975 में पेरिस विश्वविद्यालय के एक सेमिनार के अन्तर्गत उन्होंने कई सत्रों में फ्लाबेयर के एक उपन्यास के सात वाक्यों की विशद व्याख्या की. उनके अनुसार इस कथाकार के सौन्दर्य-बोध में वाक्य-विन्यास का बहुत महत्व था और वाक्य उनके नैतिक बोध के लिए भी प्रासंगिक था. जो पहला वाक्य उन्होंने चुना वह था: ‘जब तापमान तैंतीस डिग्री तक चढ़ गया था, बूर्दों बुलेवार पूरी तरह से निर्जन था.’ जो विशद व्याख्या की गयी है उसका सार-संक्षेप करना या देना उसके साथ अन्याय करना होगा जिसकी इस मुक़ाम पर कोई ज़रूरत नहीं है. यह उपन्यास को सिर्फ़ कथा की तरह भर नहीं भाषा की संरचना के रूप में भी ग्रहण करना है: उसकी सूक्ष्मता में रस लेना है, उसकी जटिल प्रकृति का साक्षात् करना है.

मैं सोचने लगा कि क्या हम प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, अज्ञेय, रेणु, निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, कृष्णा सोबती, विनोद कुमार शुक्ल आदि के उपन्यासों या कहानियों को इस तरह का प्रयत्न कर नये ढंग से पढ़ना और सराहना सीख सकते हैं? ध्यान देने की बात यह है कि बाख़्त का आग्रह भाषा के रस पर, उससे मिलने वाले आनन्द पर है पर वह बिना भाषा में रसी-बसी या कथाकार द्वारा गूंथी गयी सूक्ष्मताओं को पहचाने बिना संभव नहीं है.

भाषा पर आग्रह हमारे यहां स्वाभाविक होना चाहिये जो, दुर्भाग्य से नहीं है, बावजूद इसके कि हम संसार की उन गिनी-चुनी सभ्यताओं में हैं जिसमें लगातार सदियों तक बेहद सूक्ष्म और परिष्कृत भाषा-चिंतन होता रहा है. आधुनिकता ने जो दूरगामी क्षतियां की हैं उनमें इस भाषा-चिन्तन की विस्मृति और उसे अनावश्यक मानने की वृत्ति विकसित करने की रही है. एक बार फिर यह याद दिलाना ज़रूरी है कि भाषा साहित्य में निरा माध्यम नहीं होती वह अनुभव या अनुभूति भी होती है. कविता और गद्य दोनों में.