अमेरिकी सीनेटर रैंड पॉल का एक ट्वीट बीते दिनों काफी चर्चा में रहा. इस ट्वीट में उनका कहना था कि कोरोना वायरस के लिए नैचुरल इम्यूनिटी यानी एक बार संक्रमण हो जाने पर शरीर में अपने आप विकसित हुई प्रतिरोधक क्षमता, वैक्सीन से बेहतर विकल्प है. रैंड पॉल उन लोगों में से हैं जिन्हें कोरोना वायरस का संक्रमण हो चुका है. बीते कुछ समय के दौरान उन समेत कई लोग हैं जिनका कहना है कि कोरोना वायरस की वैक्सीन से ज्यादा सुरक्षित और प्रभावी उपाय यह है कि इस संक्रमण को होने दिया जाए.
कोरोना वायरस के प्रकोप ने दुनिया भर में अब तक 10 करोड़ से भी ज्यादा लोगों को चपेट में लिया है. 20 लाख से ज्यादा लोग इसके चलते मौत के शिकार हो गए हैं. अमेरिका, भारत और ब्राजील इससे सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में से हैं.
कोरोना वायरस फेफड़ों पर धावा बोलता है. इसके सबसे सामान्य लक्षण बुखार, सूखी खांसी और थकान हैं. इस वायरस के संक्रमण के कारण बदन दर्द, गले में खराश, सिर दर्द, डायरिया और शरीर पर चकत्ते जैसे लक्षण भी दिख सकते हैं. जानकारों के मुताबिक कुछ खाने पर स्वाद महसूस न होना और किसी चीज की गंध का अहसास न होना भी कोरोना वायरस का लक्षण हो सकता है. कई लोग सांस में तकलीफ या सीने में दर्द की शिकायत भी करते हैं. कोरोना वायरस के शरीर में घुसने के बाद संक्रमण के लक्षणों की शुरुआत में औसतन पांच दिन का वक्त लग सकता है. लेकिन कुछ लोगों में यह समय कम भी हो सकता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार वायरस के शरीर में पहुंचने और लक्षण दिखने के बीच 14 दिनों तक का समय हो सकता है.
डॉक्टरों के मुताबिक कोरोना वायरस संक्रमण के शिकार अधिकतर लोग आराम करने और पैरासिटामॉल जैसी दवा लेने से ठीक हो सकते हैं. अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत तब होती है जब किसी शख्स को सांस लेने में दिक्कत आनी शुरू हो जाए. इसके बाद मरीज के फेफड़ों की जांच कर डॉक्टर इस बात का पता लगाते हैं कि संक्रमण कितना बढ़ चुका है और मरीज को ऑक्सीजन या वेंटिलेटर की जरूरत है या नहीं. गंभीर हालत वाले लोगों को वेंटिलेटर पर रखा जाता है. यानी उन्हें सीधे फेफड़ों तक ऑक्सीजन की अधिक सप्लाई पहुंचाई जाती है. बूढ़ों और पहले से ही सांस की बीमारी (अस्थमा) से जूझ रहे लोगों या फिर शुगर और हृदय रोग जैसी परेशानियों का सामना करने वालों के लिए कोरोना वायरस ज्यादा घातक हो सकता है, इसलिए उन्हें ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत होती है.
रैंड पॉल के ट्वीट पर लौटते हैं और आगे बढ़ने से पहले यह भी समझते हैं कि वैक्सीन कैसे काम करती है. असल में वैक्सीन में वायरस का ही निष्क्रिय स्वरूप या फिर उसका वह खास प्रोटीन होता है जिसकी मदद से वायरस हमारे शरीर की किसी कोशिका से जुड़कर उसे संक्रमित करता है. इसलिए जब यह वैक्सीन हमें लगाई जाती है तो वायरस या उससे जुड़े प्रोटीन को पहचानते ही शरीर का रोग प्रतिरक्षा तंत्र यानी इम्यून सिस्टम सचेत हो जाता है और इसकी प्रतिक्रिया में एंटीबॉडीज यानी वायरस से लड़ने वाले खास प्रोटीन बना देता है. नतीजा यह होता है कि जब असल वायरस हम पर हमला करता है तो शरीर में पहले से ही मौजूद ये एंटीबॉडीज उसे घेर कर उसका खात्मा कर देते हैं.
हालांकि ऐसे बहुत से वायरस हैं जिनका प्राकृतिक रूप से संक्रमण उन्हें रोकने के लिए बनी वैक्सीन की तुलना में ज्यादा प्रभावी माना जाता है. मसलन किसी को गलसुआ या मंप्स (थूक और लार बनाने वाली ग्रंथि की सूजन) अगर अपने आप ही हो जाए तो उसे फिर जीवन भर के लिए इस बीमारी से इम्यूनिटी मिल जाती है. दूसरी तरफ, ऐसे भी मामले देखे गए हैं कि वैक्सीन लगने के बावजूद लोगों को गलसुआ हो गया. खसरा भी एक ऐसी ही बीमारी है जिसका संक्रमण एक बार होने के बाद उससे जीवन भर के लिए सुरक्षा मिल जाती है.
क्या कोरोना वायरस के मामले में भी ऐसा हो सकता है? इस वायरस के बारे में भी वैज्ञानिक अब तक जितना जान सके हैं उससे यह तो पता लग ही गया है कि एक बार इसका संक्रमण हो जाने पर इससे मिलने वाली इम्यूनिटी खासी मजबूत होती है. कई जानकारों के मुताबिक संक्रमित होकर उबर चुके लोगों में से ज्यादातर में कम से कम कम इतनी एंटीबॉडीज तो विकसित हो ही जाती हैं कि उन्हें कुछ समय के लिए इस बीमारी से सुरक्षा मिल जाती है. ऐसे लोगों को अगर दोबारा संक्रमण होता भी है तो वह ज्यादा गंभीर और खतरनाक नहीं होता. कई मामलों में सुरक्षा का यह दायरा सालों तक जा सकता है.
कई शोध वैक्सीन की दक्षता के सम्बन्ध में भी नए सवाल उठा रहे हैं. जैसे कि कोरोना वायरस की इन विशेषताओं के चलते भविष्य में बनने वाली वैक्सीन कितने दिनों तक लोगों को कोविड-19 यानी कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाकर रख पाएगी? अगर कोरोना वायरस के पिछले संस्करणों की बात करें तो उनके कारण मानव शरीर में बने एंटीबॉडीज दो से तीन साल तक उपस्थित रहते हैं. उदाहरण के तौर पर मेर्स-कोव वायरस के कारण बने एंटीबॉडीज लगभग दो से तीन साल तक मानव शरीर में उपस्थित रहते हैं. पोलियो वायरस की वैक्सीन के कारण बने एंटीबॉडीज ताउम्र शरीर की सुरक्षा करते हैं. लेकिन किंग्स कॉलेज लन्दन के वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों में पाया है कि कोरोना वायरस के खिलाफ विकसित एंटीबॉडीज संक्रमित लोगों के शरीर में लगभग 94 दिनों तक ही विद्यमान रहते हैं. इसके बाद इन एंटीबॉडीज की संख्या शरीर में तेजी से कम होने लगती है. कमजोर लक्षणों वाले लोगों या उन लोगों में जिनमें लक्षण आये ही नहीं ऐसे लोगों में ये एंटीबॉडीज एक ही महीने के बाद तेजी से कम होने लगते हैं. इन वैज्ञानिकों का यह शोध मेडआर्काइव में प्रीप्रिंट के रूप में प्रकाशित हुआ है.नए कोरोना वायरस से लड़ने वाले एंटीबॉडीज का शरीर से जल्दी ख़त्म हो जाना अच्छा संकेत नहीं है और यह तथ्य वैक्सीन का मामला और जटिल कर देता है
दूसरी तरफ, वैज्ञानिकों का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो मानता है कि कोरोना वायरस के मामले में नैचुरल इम्यूनिटी की बात करना सही नहीं है. इन वैज्ञानिकों का कहना है कि अब भी 100 फीसदी यकीन के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि किसके लिए यह संक्रमण जानलेवा नहीं होगा. यही वजह है कि एक साक्षात्कार में यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में इम्यूनॉलॉजिस्ट जेनिफर गोम्मरमन कहती हैं, ‘वैक्सीन के बजाय बीमारी चुनना बहुत ही गलत फैसला है.’ वैक्सीन के समर्थन में एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि नेचुरल इम्यूनिटी की भी एक समयसीमा तो है ही, इसलिए ऐसे लोगों के लिए भी एक समय के बाद वैक्सीन जरूरी होगी. वैज्ञानिक शब्दावली में इसे बूस्टर डोज कहा जाता है.
नेचुरल इम्यूनिटी के बजाय वैक्सीन के पक्ष में एक और तर्क है. जानकारों के मुताबिक कोरोना वायरस से मुक्त होने के बाद भी कई लोगों को उस नुकसान से उबरने में वक्त लगता है जो संक्रमण के चलते शरीर को होता है. ऐसे भी मामले देखे गए हैं जब उबर चुके लोगों में रयूमेटॉएड अर्थराइटिस जैसी बीमारियां पैदा हो गईं. यानी वायरस ने रोग प्रतिरोधक क्षमता पर कुछ ऐसा असर छोड़ा कि वह शरीर के खिलाफ ही काम करने लगी. इसलिए कई जानकार वैक्सीन को बेहतर विकल्प बताते हैं जिसमें इस तरह के जोखिम नहीं होते क्योंकि उसे सुरक्षा की पूरी आश्वस्ति के बाद ही मंजूरी दी जाती है.
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