संघ में जो सबसे महत्वपूर्ण बात सिखाई जाती है वह है सहमति बनाना और आम सहमति से काम करना यानी जिस बात को आप भले ही पसन्द नहीं करते हों, लेकिन यदि आम सहमति से उस पर निर्णय हो गया है तो फिर उसे मानना. आरएसएस पर कई किताबें लिख चुके दिलीप देवधर बताते हैं कि इस वक़्त संघ के 36 सहयोगी संगठन हैं. इनमें से 12 ‘मास बेस’ वाले और बाकी ‘क्लास बेस’ वाले संगठन हैं. यानी 12 संगठनों का सीधा जनता से सम्पर्क रहता है. इस वक़्त करीब डेढ़ लाख प्रकल्प चल रहे हैं. हर संघटना तालुका स्तर तक पहुंच गई है और संघ दुनिया के ज़्यादातर देशों तक फैल गया है.
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हजारों संघटना इस नेटवर्क का हिस्सा है. ख़ास बात ये है कि सभी संघटना ऑटोनॉमस यानी स्वायत हैं. उन्हें संघ से सीधा कोई आदेश नहीं मिलता. इनमें ‘इंटरडिपेंडेस’ की जगह ‘इंटरेक्शन’ है. हर संघटना के ध्येय तो अलग-अलग हैं, लेकिन जीवन मूल्य एक है. संगठन के नज़रिये से इस वक़्त संघ में 44 क्षेत्र (प्रोविन्स) हैं. हर क्षेत्र में कुछ प्रान्त शामिल किए गये हैं. हर प्रान्त में कई ज़िले शामिल होते हैं. विभागों की दृष्टि से संघ में शारीरिक विभाग, बौद्धिक विभाग, प्रचारक विभाग, सम्पर्कविभाग, प्रचार विभाग, सेवा विभाग और व्यवस्था विभाग हैं. इनके अलावा कुटुम्ब प्रबोधन, गौसेवा, ग्राम विकास और धर्म जागरण विभाग हैं. इन सभी विभागों के पदाधिकारी सामंजस्य, सहयोग और योजनाओं के क्रियान्वयन पर तो काम करते ही हैं, साथ ही राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और प्रान्तीय अधिकारी लगातार प्रवास भी करते रहते हैं.
प्रवास संघ की महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो उसे न केवल ज़िन्दा रखती है बल्कि तरोताज़ा बनाए रखने में मदद करती है. प्रवास के दौरान हर पदाधिकारी स्वयंसेवकों और दूसरे अधिकारियों की बातों और सुझावों पर ध्यान देने का काम करता है. सलाह मशविरा के बाद संघ के कार्यक्रमों और नीतियों में बदलाव होता है. यह एक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है. आरएसएस के संविधान के मुताबिक़ यहां संघीय व्यवस्था है. नीतिगत निर्णय केन्द्र करता है, लेकिन उन्हें लागू करने और सुझाव देने का काम प्रान्तीय, क्षेत्रीय और ज़िला स्तर पर होता है. संघ की प्रतिनिधि सभा के लिए हर तीन साल में चुनाव होते हैं. इसके लिए सभी क्षेत्रों के प्रतिनिधि वोट देते हैं और फिर प्रतिनिधि सभा सरकार्यवाह का चुनाव करती है. यानी संघ के सबसे ताक़तवर पद सरकार्यवाह के लिए चुनाव होता है. सरकार्यवाह का पद किसी संगठन के महासचिव जैसा होता है. संघ में सरकार्यवाह ही सबसे शक्तिशाली होते हैं, उन्हीं के पास सब अधिकार होते हैं. इसलिए जो लोग यह सवाल उठाते हैं कि आरएसएस में सरसंघचालक का चुनाव नहीं होता और वह मनोनीत किए जाते हैं इसलिए संघ एक लोकतान्त्रिक संगठन नहीं, यह सोच ठीक नहीं है. संघ के सरसंघचालक केवल गाइड और फ़िलॉसफर के तौर पर काम करते हैं और उन्हें भी सरकार्यवाह की बात को मानना होता है.
देखने में भले ही लगता हो कि सरसंघचालक अपने उत्तराधिकारी यानी अगले सरसंघचालक को मनोनीत करते हैं, लेकिन उसमें भी वे सरकार्यवाह और संघ के हाईकमान केन्द्रीय कार्यकारिणी से विस्तार से चर्चा के बाद यह निर्णय करते हैं. इसके साथ ही संघ के महत्वपूर्ण निर्णय और प्रस्तावों को प्रतिनिधि सभा और केन्द्रीय कार्यकारिणी मंडल पास करते हैं. आरएसएस के संविधान के मुताबिक़ संगठन में सरसंघचालक सर्वोच्च और मनोनीत पद होता है. इसके बाद सरकार्यवाह, जो किसी संगठन के महासचिव पद के बराबर होता है. फिर सह सरकार्यवाह, प्रचारक, मुख्य शिक्षक, कार्यवाह, गटनायक, और स्वयंसेवक होता है. संघ के विचार और उद्देश्यों को मानने वाला कोई भी 18 साल या उससे ज़्यादा की उम्र का पुरुष संघ की शाखा में शामिल होकर स्वयंसेवक बन सकता है. 18 साल से कम उम्र के बच्चों को बालस्वयंसेवक कहा जाता है.
संगठन की एक महत्वपूर्ण कड़ी है प्रचारक. प्रचारक फुलटाइम काम करने वाले और संघ में निष्ठा के साथ गतिविधियों से जुड़े रहने वाले होते हैं. उन्हें इसके लिए कोई पैसा नहीं मिलता, लेकिन उनका खर्चा संघ उठाता है. अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख और क्षेत्र व प्रान्त संघचालक की सलाह से सरकार्यवाह क्षेत्र और प्रान्त प्रचारक की नियुक्ति करते हैं. प्रान्त संघचालक प्रान्त प्रचारक की सलाह पर प्रान्त के अलग-अलग इलाकों के लिए प्रचारक नियुक्त करते हैं. संघ के संविधान के आर्टिकल 15 (ए) के मुताबिक़ अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा सरकार्यवाह का चुनाव करती है. सरकार्यवाह सरसंघचालक की सलाह पर काम करते हैं. सरकार्यवाह अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की सलाह पर नये प्रान्त और नये क्षेत्र भी बना सकते हैं. साथ ही वे प्रान्त और क्षेत्रीय कार्यकारी मंडल के बनने के बाद संविधान के मुताबिक़ कार्यकारी मंडल बनाते हैं. शाखा में हर पचास स्वयंसेवकों पर एक शाखा प्रतिनिधि के तौर पर स्वयंसेवक चुनते हैं. पचास से कम स्वयंसेवकों वाली शाखाएं मिलकर प्रतिनिधि का चुनाव करती हैं. फिर अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा क्षेत्र संघचालक का चुनाव करती है. जिला, विभाग और प्रान्त के प्रतिनिधि अपने संघचालक का चुनाव करते हैं. संघचालक कार्यकारी मंडल बनाते हैं. इसमें कार्यवाह, शारीरिक शिक्षण प्रमुख, बौद्धिक शिक्षण प्रमुख, प्रचार प्रमुख, व्यवस्था प्रमुख, सेवा प्रमुख और निधि प्रमुख पदाधिकारी के तौर पर होते हैं और संघचालक उनका चेयरमैन होता है.
सभी चुनाव संघ के संविधान के मुताबिक़ किए जाते हैं. आमतौर पर एक प्रतिनिधि के नाम का प्रस्ताव होता है और फिर कोई उसका समर्थन का प्रस्ताव करता है. यानी संघ में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के आधार पर संगठन का काम चलता है. रोल मॉडल या नायक पूजा की आदत वाले इस देश में आरएसएस का संगठन इस दृष्टि से ख़ास माना जा सकता है क्योंकि यहां औपचारिक तौर पर व्यक्ति की पूजा नहीं होती. संघ में सिर्फ़ ‘भगवा-ध्वज’ को ही प्रणाम किया जाता है. सभी काम भगवा-ध्वज को प्रणाम करके ही शुरू किए जाते हैं. संघ में गुरु दक्षिणा भी भगवा-ध्वज के सामने ही भेंट की जाती है. डॉ हेडगेवार का मानना था कि व्यक्ति पतित हो सकता है, लेकिन विचार और पावन प्रतीक नहीं. उसका असर संगठन पर पड़ेगा. इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए डॉ हेडगेवार ने संघ के लिए भगवा-ध्वज को ही सबसे बड़ा गुरु माना. इस ध्वज में भारत की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक परम्परा, शौर्य और बलिदान की भावना शामिल है. वैसे भगवा-ध्वज महाभारत काल से लेकर मौजूदा समय तक सम्मान का प्रतीक माना जाता है. हमारे यहां साधु-सन्त भी भगवा वस्त्र धारण करते हैं.
इस भगवा-ध्वज को गुरु की मान्यता यूं ही नहीं मिली. यह ध्वज तपोमय व ज्ञाननिष्ठ भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक सशक्त और पुरातन प्रतीक है. उगते हुए सूर्य के समान इसका भगवा रंग भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक ऊर्जा, पराक्रमी परम्परा और विजय भाव का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है. संघ ने उसी पवित्र भगवा-ध्वज को गुरु के प्रतीक रूप में स्वीकार किया है जो कि हज़ारों साल से राष्ट्र और धर्म का ध्वज था.
संघ का एक महत्वपूर्ण चरित्र, जो शायद ही देश के किसी दूसरे सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संगठन में दिखाई देता है, वह है उसकी आत्मनिर्भरता. आरएसएस कभी संगठन को चलाने या फिर उसकी दूसरी गतिविधियों को चलाने के लिए चन्दा नहीं लेता. डॉ हेडगेवार इस बात को बेहतर तरीके से समझते थे कि ज़्यादातर संगठन इसीलिए बन्द हो जाते हैं, या फिर सरकारों के इशारे पर चलते हैं, क्योंकि उनका ख़र्च दूसरे या बाहरी माध्यमों से होता है. इसलिए संघ में शुरुआत से ही इस बात की व्यवस्था की गई कि स्वयंसेवक ही संघ का ख़र्चा उठाए. वैसे संघ सबसे कम ख़र्चों में चलने वाला संगठन है, लेकिन अपने ख़र्च के लिए संघ में सिर्फ़ एक दिन तय है ‘गुरु पूर्णिमा’ का दिन, जो गुरु वेदव्यास की याद में मनाया जाता है. इस दिन स्वयंसेवक भगवा-ध्वज के सामने फूल चढ़ाते हैं और फिर बिना नाम वाले बन्द लिफाफे में अपना योगदान ‘गुरु दक्षिणा’ अर्पित करते हैं. इसका बड़ा फ़ायदा यह है कि इससे संगठन में अमीर-ग़रीब का कोई भेद नहीं रहता, क्योंकि ज़्यादातर संगठनों में ज़्यादा चन्दा देने वाले की पूछ ज़्यादा होती है. लेकिन यहां सारा गुप्त दान होता है, तो किसी को पता नहीं चलता. यह पैसा संघ की शाखाओं, गतिविधियों को चलाने के काम आता है और इसके साथ ही इसी पैसे में से संघ के फुलटाइम प्रचारकों का ख़र्च भी चलता है. संघ के सहयोगी संगठन भी आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर होते हैं. वे अपनी गतिविधियों के लिए संघ या किसी दूसरे संगठन पर आमतौर पर निर्भर नहीं होते. आर्थिक आत्मनिर्भरता से संगठन की नैतिक शक्ति बनी रहती है.
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