दो फरवरी की रात को जब मैं सोया तो मुझे यकीन था कि ‘मेरा भारत महान’ मजबूत, सुरक्षित और आत्मनिर्भर है. अगली सुबह जब मेरी नींद खुली तो मुझे मालूम हुआ कि किसी विदेशी के एक ट्वीट ने हमारी सुरक्षा और संप्रुभता की नींव हिला दी है. हालांकि शाम होते-होते मेरी बेचैनी और आशंकाएं काफी हद तक दूर हो गईं. मैं एक बार फिर इस विश्वास के साथ सोया कि हमारे देश का गर्व और उसकी आत्मनिर्भरता पूरी तरह से अक्षुण्ण है. इस विश्वास के पीछे हमारे सदा सत्यवादी विदेश मंत्रालय के बयान, हमारे सदा सम्मानीय गृह मंत्री के ट्वीट और इन सबसे ऊपर अक्षय कुमार और सचिन तेंदुलकर जैसे महान और दूरदर्शी राजनीति विज्ञानियों के गहरे विचारों का सामूहिक प्रयास था.
यह लेख हमारी नई वेबसाइट सत्याग्रह.कॉम पर भी प्रकाशित हुआ है जो सिर्फ इसी तरह की विशेष और विज्ञापन रहित सामग्री के लिए है.
व्यंग्य मेरी स्वभाविक शैली नहीं है लेकिन, रिहाना नाम की महिला के एक छोटे से ट्वीट पर हमारी सरकार और इसके काम आने वाले मूर्खों ने जिस तरह की प्रतिक्रिया दी है उसके साथ न्याय शायद मजाक और व्यंग्य से ही किया जा सकता है. इस प्रतिक्रिया में पाखंड और बेईमानी तो थी ही, लेकिन सबसे ज्यादा इसमें इस समझ की कमी थी कि किसी बात को कितना भाव दिया जाना चाहिए. गर्व, एकजुटता, ललकार और संकल्प के सामूहिक और समन्वित उबाल ने उस नाजुक नींव को साफ उजागर कर दिया जिस पर अब हमारा राष्ट्रवाद टिका हुआ है.
सत्रहवीं सदी में हुए फ्रेंच लेखक ला रॉशफुकु ने कहा था कि पाखंड भलाई को बुराई की श्रद्धांजलि है. उनकी यह मशहूर उक्ति खास कर ताजा मामले के लिए सटीक बैठती है. यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी दूसरे देश के राजनीतिक मामलों में सक्रियता के साथ दखल दे चुके हैं. ऐसा तब हुआ था जब उन्होंने भारतीय मूल के अमेरिकियों से 2020 के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप को वोट देने को कहा था. इससे पहले भारत के सभी पिछले प्रधानमंत्री इस तरह के मामलों में निष्पक्षता के सिद्धांत का पालन करते आ रहे थे. नरेंद्र मोदी का यह परंपरा तोड़ना न सिर्फ एक नासमझ बल्कि नुकसानदायी हरकत भी थी. बार्बाडोस (रिहाना मूल रूप से इसी देश की हैं) की किसी गायिका के भारतीय किसानों के विरोध प्रदर्शन पर टिप्पणी करने से ज्यादा बुरा भारतीय प्रधानमंत्री का अमेरिकियों को यह बताना था कि वे अपना राष्ट्रपति किसे चुनें. बल्कि देखा जाए तो ह्यूस्टन में डोनाल्ड ट्रंप के बगल में खड़े होकर नरेंद्र मोदी ने जो कहा उसके बाद भारत सरकार के पास ऐसा कोई आधार ही नहीं बचा जिसके सहारे वह अपनी कार्रवाइयों पर किसी भी विदेशी की किसी भी तरह की टिप्पणी का विरोध कर सके.
सरकार की प्रतिक्रिया का पाखंड गृह मंत्री के ट्वीट में भी दिखा. जिन्हें सत्ताधारी पार्टी की आईटी सेल के आविष्कारक-पर्यवेक्षक और चीजों को अपने हिसाब से तोड़ने-मरोड़ने के खेल का ग्रैंडमास्टर कहा जाता है वे दूसरों पर प्रोपैगेंडा का आरोप लगा रहे थे. यह तो वही हो गया कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे. एक ऐसी राजनीति जो धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रवाद जैसे कट्टर विभाजनों पर पनपी और फली-फूली हो, देश से ‘एकजुट’ होने को कह रही है.
उधर, विदेश मंत्रालय ने जो बयान जारी किया उसकी शुरुआत ही झूठ के साथ हुई. वह झूठ यह था कि कृषि से जुड़े कानून संसद में पूरी बहस और चर्चा के बाद पारित हुए. देखा जाए तो इतने दूरगामी बदलावों वाले कानूनों को लेकर पहले राज्यों से विचार-विमर्श किया जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इन कानूनों को संसदीय समितियों के पास भेजा जाना चाहिए था. ऐसा भी नहीं हुआ. इन प्रक्रियाओं को दरकिनार करने के बाद मोदी सरकार ने राज्य सभा में मत परीक्षण या मतों की औपचारिक गिनती तक नहीं होने दी जो और भी बेशर्मी वाली बात थी. जैसा कि प्रताप भानु मेहता ने तब लिखा था, ‘यह संसद का मखौल है. यह विधेयक जबरन पारित कराया गया है. इसका आधार इसके सुविचारित गुण नहीं बल्कि सत्ता की निरी ताकत है.’
विदेश मंत्रालय का दावा है कि सरकार ने किसानों के विरोध पर जिस तरह से प्रतिक्रिया दी है वह भारत के ‘लोकतांत्रिक चरित्र और व्यवस्था’ का सबूत है. सच्चाई यह है कि बाकी तमाम मामलों की तरह इस मामले में भी मोदी सरकार ने संसद के भीतर और बाहर, दोनों जगह दुर्भावना के साथ काम किया है. अगर ये कानून इस तरह छल-कपट के साथ पारित नहीं हुए होते तो विरोध प्रदर्शनों का स्वरूप या पैमाना यह नहीं होता. शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे लोगों को जहर बुझे तरीके से खालिस्तानी बताना, देश की राजधानी में तमाम जगहों पर सड़कों पर कीलें और बाड़ लगाना, एक के बाद एक करके कई इलाकों में इंटरनेट बंद करना, पत्रकारों पर एफआईआरों का सिलसिला और सरकार की अतियों की आलोचना करने वाले अकाउंट्स बंद करने के लिए ट्विटर पर दबाव बनाना, यह सब ‘भारत के लोकतांत्रिक चरित्र’ को समझने या उसे बरकरार रखने के मोदी सरकार के दावों पर ज्यादा भरोसा पैदा नहीं कर पाता.
कुछ दिन पहले तक मैं रिहाना के बारे में कुछ खास नहीं जानता था. मुझे लगता है कि हमारे गृह या विदेश मंत्री के साथ भी ऐसा ही रहा होगा. लेकिन जब उन्हें पता लगा तो उनका ऐसा व्यवहार देखने को मिला जैसे वे रिहाना और उनके 10 करोड़ ट्विटर फॉलोअर्स का मुकाबला कई भारतीय सेलिब्रिटीज और उनके सम्मिलित ट्विटर फॉलोअर्स के जरिये करना चाहते थे. इसलिए फिल्मों और खेलों की दुनिया के सितारे सरकार की लाइन आगे बढ़ाने के लिए एक-दूसरे से होड़ किए जा रहे थे और ट्विटर पर उनके शब्द और हैशटैग्स लगभग एक जैसे ही थे.
एक विदेशी के छह शब्दों के ट्वीट पर सरकार की प्रतिक्रिया छल, बेईमानी और पूरी तरह से संयमहीन थी. अपने ट्वीट में विदेश मंत्री ने कहा, ‘भारत को निशाना बनाने के मकसद से चलाए जाने वाले दुर्भावनापूर्ण अभियान कभी सफल नहीं होंगे. हमारे पास आज वह आत्मविश्वास है कि हम चुनौतियों के बावजूद टिके रह सकते हैं. यह भारत जवाब देगा.’ इस ट्वीट के शब्द ही वह खोखलापन जाहिर कर रहे थे जो इसके जरिये हांकी गई शेखी में छिपा हुआ था. विदेश मंत्री और उनके सहयोगी दुनिया को बता रहे थे कि हमारा सामूहिक राष्ट्रीय अहम कितना नाजुक और असुरक्षित है. हमारे कायर सेलिब्रिटीज के उलट बार्बडोस की इस गायिका ने जो कहा वह उसकी स्वतंत्र और सहज अभिव्यक्ति थी. बनावटीपन सरकार और सत्ताधारी वर्ग की प्रतिक्रिया में था और इसमें आत्मविश्वास नहीं बल्कि भय दिख रहा था. खुद पर ज्यादा यकीन रखने वाली कोई सरकार इस तरह के ट्वीट की पूरी तरह से उपेक्षा करती.
मुझे क्रिकेट से लगाव है और जिस तरह से हमारे सबसे मशहूर और पूजे जाने वाले क्रिकेटरों ने राज्य सत्ता से सुर मिलाया वह देखना दुखदायी था. इनमें से सिर्फ एक था जिसने अपनी जमीन नहीं छोड़ी और डटा रहा. वह शख्स थे बिशन सिंह बेदी जिन्होंने इस बनावटी आक्रोश का जवाब अपनी रूखी और आत्मनिंदात्मक शैली में दिया : ‘ईमानदारी से कहूं तो ऐसा लगता है कि जब तक बार्बाडोस की गायिका के बयान ने भारतीय टीवी चैनलों के साथ मिलकर मुझे नींद से नहीं जगाया तब तक मुझे पता ही नहीं था कि दिल्ली की सीमाओं पर क्या चल रहा है. भई बुजुर्गवार, छोटी-छोटी चीजों को दिल पर लेना शुरू करो वर्ना तुम राष्ट्रवाद के खिलाफ जा रहे हो..!!!’
Honestly it seems I didn’t know anything about what’s going on at the Delhi borders until the curvaceous Barbadian in conjunction w/Indn TV’s woke me up frm my slumbers..come on Old Man start becoming ‘touchy’ or else U are heading towards anti-nationalism..!!!
— Bishan Bedi (@BishanBedi) February 3, 2021
इस बीच, गांधी के शिष्य के रूप में मैं सोचता हूं कि आज जिस उग्र अंधराष्ट्रवाद का प्रदर्शन देशप्रेम के नाम पर किया जा रहा है उस पर हम सबसे ज्यादा बड़ा वह देशभक्त क्या कहता. उन शेखियों, डींगों, आक्षेपों और गालियों के बारे में वह क्या सोचता जिन्हें मोदी के भारत में देशभक्ति का नाम दिया जाता है? 1938 में की गई गांधी की एक टिप्पणी इसका कुछ संकेत देती है. उन्होंने कहा था, ‘आज के इस दौर में, जब दूरियां समाप्त हो गई हैं, कोई भी देश कुएं के मेंढक की तरह बर्ताव करने का जोखिम नहीं ले सकता. कभी-कभी खुद को दूसरों की नजर से देखना भी आपको ताजगी देता है.’
फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर हमसे जुड़ें | सत्याग्रह एप डाउनलोड करें
Respond to this article with a post
Share your perspective on this article with a post on ScrollStack, and send it to your followers.