सारांश
कोई भी जीवनी जिसकी होती है उसके जीवन का सारांश होती है, वह भी जैसा जीवनीकार पाता या समझता है. सदाशय हो तो यह सारांश कई सारे नकारात्मक तथ्यों को छोड़ सकता है और न हो तो उन पर ज़रूरत से ज़्यादा बल दे सकता है. यह, जो भी हो, एक तरह की ट्रैजडी ही होती है कि जीवन, एक भरा-पूरा जीवन, पल-पल स्पन्दित जीवन, जिसका बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा शब्दातीत ही जिया-बिताया जाता है, किसी सारांश में वह कितना ही सघन-समृद्ध क्यों न हो, सिमट जाता है. इस अर्थ में हर जीवनी अपर्याप्त होती है, अपर्याप्त ही हो सकती है उस जीवन के सिलसिले में जिसका कि वह बखान होती है. जब वह लिखी जाती है तो वह जीवन बीत चुका होता है और उसे वह ज़रूरी ब्यौरों के साथ एक तरह के पुनर्जीवन में बदलने की कोशिश करती है. यह कोशिश अपने मूल में ही अपर्याप्त होने के लिए अभिशप्त होती है.

अच्छी जीवनियां वे होती हैं जो अपनी अपर्याप्तता को याद रखती हैं और हमें भी उसका बराबर अहसास कराती रहती हैं. यह बात मुझे सूझी जब मैं थोड़ी देर पहले चीनी कवि बी दाओ के अमरीकी कवि एलेन गिंसबर्ग, मैक्सिकन कवि आक्तावियो पाज़ और स्वीडिश कवि टोमस ट्रांस्ट्रोमर के संस्मरण पढ़ रहा था जो उनकी गद्य-पुस्तक ‘ब्लू हाउस’ में संकलित हैं. इन तीनों बड़े कवियों से मिलने का मुझे भी सौभाग्य मिला है. बी दाओ उनके साथ बिताये समय को जिन मार्मिक ब्योरों में याद करते और लिखते हैं उन्हें शायद ही इन कवियों की जीवनियों में स्थान मिला होगा. जैसे जीवन में वैसे ही जीवनी में, कितना-कुछ छूट जाता है जो मर्मस्पर्शी, निपट मानवीय सजीव था. कई बार हम इसका हिसाब भी नहीं रख पाते कि ऐसे भूलकर स्वयं अपने जीवन में हमने कितना लगातार गंवाया है. हममें से कोई भी अपना जीवन उसके सारांश में घटे या सिमटे जाने के लिए नहीं जीता है.
समस्या सिर्फ़ जीवनी की अपर्याप्तता की नहीं है: सारा साहित्य, कुल मिलाकर, जीवन को, उसकी अपार बहुलता, जटिल संयोजन, पल-पल स्पन्दन को, उसकी अबाध गतिमयता, उसकी मुखरता और चुप्पियों को पूरी तरह अपने में समा नहीं पाता. जीवन के बरक़्स भाषा और साहित्य की ये स्पष्ट सीमाएं हैं. बावजूद इन सीमाओं के साहित्य यह चेष्टा करने से चूकता नहीं है कि पूरा का पूरा जीवन, किसी न किसी तरह, उसमें आ जाये. बड़ी रचना शायद वह होती है जो हमें बहुत सारा जीवन दे पाये पर उसकी विशालता के आगे अपनी ठिठक, अपनी विफलता का अहसास भी हमें करा पाये. दूसरी ओर, यह भी सही है कि जीवन तो कहीं न कहीं अपने तक या कुछ तक सीमित रह जाता है पर साहित्य में आये जीवन का साझा दूर तक और देर तक बहुतों द्वारा किया जा सकता है. यह नहीं भूलना चाहिये कि साहित्य जीवन का सारांश नहीं होता और न ही उपसंहार.
साही संचयिता
रज़ा पुस्तकमाला का एक प्रयत्न उन लेखकों की संचयिताएं प्रकाशित करने का है जिन पर ध्यान या तो कम गया और जा रहा है. कवि-आलोचक विजयदेव नारायण साही की गोपेश्वर सिंह द्वारा संपादित और वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 624 पृष्ठों की संचयिता उनमें से एक है. साही अलक्षित नहीं गये हैं पर वे ऐसे लेखक हैं जो अपने समय के बाद भी महत्व और प्रासंगिकता रखते हैं. उनके दो अंश इसको प्रमाणित करने के लिए काफ़ी हैं.
पहला अंश उनके 1956 में लिखित लेख ‘नितान्त समसामयिकता का नैतिक दायित्व-2’ के अन्त में है: ‘समसामयिक विचारक और कलाकार अन्धकार से घिरा होता है, लेकिन साहस से परिपूर्ण; अनिश्चयशीलता में विवश होता है किन्तु प्रयास में अपराजित; उत्तरहीन प्रश्नों से ग्रस्त होता है, किन्तु झूठे उत्तरों का प्रतिरोधी; साम्प्रतिक सत्य से सीमित होता है किन्तु आडम्बर का विरोधी; त्रास और दुख का अस्तित्व स्वीकार करता है, किन्तु स्वतन्त्रता का सैनिक होता है. उसका विवेक उसकी आस्था है, उसका संशय उसकी ईमानदारी है, उसका साहस उसके व्यक्तित्व की पूर्णता है और उसकी लघुता उसकी सार्थकता है. नैतिकता के लिए इससे अधिक कौन सा आधार चाहिये?’
दूसरा अंश ‘कवि के बोल खरग हिरवानी’ शीर्षक निबन्ध से है: ‘जायसी जहां खड़े थे वहां से वे बहुत आसानी के साथ कबीर की तरह एक वैकल्पिक अध्यात्म की सृष्टि कर सकते थे. उन्हें कबीर की जानकारी है... जायसी की निर्मल दृष्टि मानवीय समस्या को जिस प्रकार देख रही थी, उसमें कबीरदास की परिणति से अपने को बचाना ज़रूरी था. इसलिए जायसी ने न कोई अखाड़ा बनाया, न चेले बनाये, न बाबागिरी, अपनायी, न किसी आध्यात्मिक दर्शन का रूपक बांधा. उन्होंने अपने लिए कवि, और सिर्फ़ कवि की भूमिका चुनी जिसका दावा सिर्फ़ इतना ही है कि जिसने उनका मुंह देखा उसे हंसी आ गयी, जब काव्य सुना तो आंसू आ गये. लगता है जायसी अपने पाठक से सिवा इस प्रश्न के और कुछ भी नहीं पूछना चाहते कि आपका अध्यात्म चाहे जैसा हो, ईश्वर चाहे जैसा हो, कर्मकाण्ड चाहे जैसा हो, लेकिन आपकी आंखों में आंसू आने की क्षमता शेष है या नहीं.’
इस पर ध्यान कम गया है कि साही ने ग़ज़लें भी कहीं थीं जिनमें से कुछ इस संचयिता में संकलित हैं. कुछ शेर देखें:
दुख रहा है कुछ कहीं गहराइयों में बार बार
फिर किसी दरया का इक क़तरा गहर होने को है.
सहरा से आयी अपनी सदाओं की बाज़गश्त
किसने कहा ये हमसे यहां आ चुके हैं हम.
ठोकर में रहेगा मुस्तक़बिल और साथ रहेगी शफ़क़ते-दिल
जो धूल उड़ेगी पैरों से परचम की तरह लहरायेगी.
बार-बार
इस अहसास से कम से कम कभी मुक्त नहीं हो पाता हूं कि हमारे समय में उत्कृष्टता, मूर्धन्यता और नवाचार सभी उतार पर हैं. यह हालत सिर्फ़ भारत भर की नहीं है, सारे संसार में यह व्याप्त है. लगता है जैसे सारी मानवता ने सृजन, विचार, राजनीति, सामाजिकता आदि में, कुल मिलाकर, एक कामचलाऊ औसतपन स्वीकार कर लिया है. बहुत निर्भीकता है पर सार्थकता नहीं, बहुत प्रयोगशीलता है पर प्रासंगिकता नहीं.
रज़ा-शती के आरम्भ पर ऐसी निराशा भले अवसर के अनुकूल नहीं है, पर लगता है कि भारत में रज़ा और उनके समकालीन-मित्र किस क़दर प्रतिभाशाली, परिश्रमी, कलासक्त, जीवन-विपुल, कठिनाइयों पर विजय पाने वाले और अपनी अद्वितीय शैली विकसित करने और उसे लगातार सघन-उत्कट और परिवर्द्धनशील बनाने वाले थे. उनकी संख्या आश्चर्यकारी है. ऐसी उत्कृष्टता की जमात न पहले जुड़ी, न बाद में मुमकिन हुई. रज़ा, मक़बूल फिदा हुसेन, सूज़ा, रामकुमार, वासुदेव गायतोण्डे, तैयब मेहता, अकबर पदमसी, कृष्ण खन्ना, बाल छाबड़ा. यह आकस्मिक नहीं हो सकता कि जिस दौरान ये कलाकार सक्रिय थे उस दौरान संगीत, नृत्य, रंगमंच, साहित्य, विचार आदि अनेक सर्जनात्मक क्षेत्रों में व्यापक मूर्धन्यता थी. इसलिए रज़ा-शती इस बेहद समृद्ध उत्तराधिकार को समझ और संवेदना से, कृतज्ञता और अभिमान से याद करने का मुक़ाम हो सकना चाहिये. यह भी आकस्मिक नहीं है कि जैसे-जैसे हमारे लोकतंत्र का दायरा सिकुड़ रहा है वैसे-वैसे इसी लोकतंत्र में सम्भव हुए आधुनिकता के भारतीय स्वर्ण-युग का अवसान हो रहा है.
इसकी पहचान शिथिल नहीं पड़ना चाहिये कि भारतीय आधुनिकता विश्व-व्यापी पश्चिमीकरण को हिसाब में लेती है पर वह अपने ढंग से भारतीय और आधुनिक दोनों है. उसमें भारतीय परम्परा का आधुनिक पुनराविष्कार है, उसमें गहरी प्रश्नाकुलता है: वह दिये हुए उत्तरों से विरत होकर नये उत्तर खोजती है. उसमें भारतीय संस्कृति और जनजीवन की अदम्य बहुलता का सर्जनात्मक स्वीकार, बौद्धिक अन्वेषण और प्रखर अभिव्यक्ति है. हर हालत में यह कला विचारशील है और जिस भारत का, तरह-तरह से, उत्सव मनाती है वह भारत अब टूट-फूट रहा है. इस कला के सर्वोत्तम क्षणों और कृतियों को याद करना समावेश और संवाद को, प्रश्नवाचकता और ईमानदार आत्मसंशय को याद करना है.
जब पहले के उजले-सार्थक, समावेशी और बहुल को भुलाने की एक दुष्ट मुहीम चल रही है, रज़ा-शती याद दिलाने की विनम्र कोशिश है. याद कर ही हम थोड़ा बहुत भारत को उसकी बौद्धिक प्रखरता और सर्जनात्मक उज्ज्वलता में बचा सकते हैं. उम्मीद है कि याद के लिए कम से कम कुछ के पास समय और अवकाश होगा.
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