संशय और विश्वास
हम जिन भावों या दशाओं को परस्पर विरोधी और इसलिए जीवन में असंगत मानते हैं, वे वस्तुतः इस कारण हमारे जीवन से बाहर नहीं निकल जातीं. वे अकसर विरुद्धों के सामंजस्य की तरह बनी रहती हैं. ऐसा सामंजस्य कला में तो अक्सर होता है. यह लग सकता है कि जितना बड़ा कलाकार होगा, उतना बड़ा उसमें अन्तर्विरोध होगा या होंगे. संशय और विश्वास दो ऐसी ही भावदशाएं हैं जो एक-दूसरे की विरोधी लगती हैं. पर कला में कम से कम वे परस्पर विरोधी होकर भी सक्रिय रहती हैं. इसका सबसे उजला और टिकाऊ उदाहरण रज़ा हैं जिनकी जन्म-शती इसी 22 फ़रवरी से शुरू हो रही है. उनके अपने अनुसार एक वनग्राम में पैदा हुए और वनों के बीच बड़े होते हुए उन्हें सुन्दरता का अनुभव होता था और भय का भी. दूसरे शब्दों में, उनका आरंभिक जीवन सुन्दरता और भय के युग्म से शुरू हुआ. इसी तरह का दूसरा युग्म था आत्मसंशय और आत्मविश्वास.

एसएच रज़ा बार-बार अपनी कला को लेकर संशयग्रस्त होते रहते थे. उन्हें उसकी दिशा पर सन्देह होता था और यह बेचैनी उनके पत्रों और कलाकृतियों में दर्ज़ है. दूसरी ओर, उन्हें यह आत्मविश्वास था कि उनकी नियति कलाकार होने की है. दोनों भाव साथ-साथ चलते रहे. यह कहा जा सकता है कि जो एकतान भाव से कला में चलते हैं याने सिर्फ़ आत्मसंशय से या कि निरे आत्मविश्वास से, वे शायद उतना सार्थक काम नहीं कर पाते. कला का अन्तर्जगत् किसी न किसी तरह की द्वन्द्वात्मकता से ही सधता, पुष्ट और समृद्ध होता है. मैंने कई बार रज़ा को एक बहुत सुन्दर चित्र बनाने के बाद यह कहते सुना है कि पता नहीं बात बनी कि नहीं! अपने बनाये पर अचरज होना भी इसी द्वन्द्वात्मकता का लक्षण है या शायद प्रतिफल.
सच्चा कलाकार पहले से नहीं जानता कि किसी कृति में क्या होने जा रहा है. वह अक्सर किसी अबूझ लय, या किसी आकस्मिक उत्प्रेरण, किसी दैनिक बाध्यता के कारण शुरू करता है और फिर अनजानी-अनपहचानी राह पर चल निकलता है और वह उसे वहां ले जाती है जहां पहुंचने का उसने सोचा न था. अच्छा कलाकार इस अचरज को दर्शक या श्रोता या रसिक को अन्तरित कर देता है. जो मामला दृष्टि से शुरू हुआ था वह रूप के अधीन हो जाता है. याद करें कभी उस्ताद अली अकबर खां ने सहज भाव से, बिना नाटकीय हुए या लगे, कहा था: ‘थोड़ी देर तो मैं सरोद बजाता हूं और फिर सरोद मुझे बजाने लगती है - तब क्या होता है मैं नहीं जानता या कह सकता.’
माध्यम पर अधिकार होने के कई पक्ष हैं. वह ऐसा कौशल स्वायत्त करना है जिसे आत्मसंशय विपथ नहीं कर सकता और आत्मविश्वास और सशक्त नहीं कर सकता. वह मानो आदत बन जाता है. पेरिस में ‘पेरिस स्कूल’ का कलाकार मान्य होने के बाद रज़ा इस आत्मप्रश्न से ग्रस्त हुए कि यह होना तो उनकी नियति नहीं हो सकती. उन्होंने खुद से पूछा कि उनकी कला में भारत कहां और रज़ा कहां हैं? यह प्रश्न उन्हें बिन्दु खोजने की ओर ले गया. बा़की इतिहास है.
कला और जिजीविषा
रचने और जीने की इच्छाएं, आम तौर पर, अलग-अलग होती हैं. ऐसे अवसर और ऐसे व्यक्ति हो सकते हैं जब दोनों इच्छाएं मिलकर एक हो जायें, एकाकार हो उठें. मुझे कम से कम चित्रकार सैयद हैदर रज़ा ऐसे व्यक्ति मिले थे जिनमें कला-कर्म और जिजीविषा तदाकार हो गये थे. वे जीते थे कला के लिए और कला रचते थे जीने के लिए. याद आता है कि कभी रघुवीर सहाय ने कहा था कि जब वे कविता नहीं रच रहे होते हैं तो अपने को रचने के लिए तैयार कर रहे होते हैं. रज़ा पर भी यह बात पूरी तरह से लागू होती थी. हमने रज़ा फ़ाउण्डेशन में उनकी विपुल निजी सामग्री एक अभिलेखागार की तरह एकत्र और विन्यस्त की है. उसे उनकी जिजीविषा के साक्ष्य के रूप में भी देखा-समझा जा सकता था.
कला पर एकाग्र होने के बावजूद रज़ा की जिजीविषा उसी तक सीमित नहीं थी. रज़ा जीवन में बहुत रसे-पगे थे. दूसरों की उन्हें हमेशा ज़रूरत थी, वे अकाट्य रूप से आत्मनिष्ठ थे लेकिन उनका आत्म कला के अरण्य में आकार नहीं लेता था. वह दूसरों के संग-साथ से प्रतिकृत और रूपायित आत्म था. दूसरों के साथ निरन्तर संवाद, आये लगभग बीस हज़ार पत्रों के सावधानी से दिये गये उत्तर, उनके कई प्रारूप, उनकी प्रतिलिपियां रखना, दूसरों की मदद, युवतर कलाकारों को लगातार वित्तीय और अन्य क़िस्म की सहायता देना आदि उनकी जिजीविषा की ही विविध, अत्यन्त मानवीय अभिव्यक्तियां रही हैं. उन्हें कोई पंक्ति, उक्ति, कवितांश, विचार अच्छा लगता तो उसे अपनी डायरी में याद से नोट कर लेते थे. उनकी डायरियों में, जिनमें से कुछ गा़यब हैं पर जिन्हें मैंने देखा-पढ़ा था उनके पेरिस के घर-स्टूडियो में, उनमें हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, फ्रेंच भाषाओं में सुघरता से और उनकी सुन्दर लिपि में किये गये सैकड़ों इन्दराज़ थे. इनमें कोई क्रम नहीं था: वेसघन-समृद्ध विविधा थे. उनमें से कुछ को यह सौभाग्य भी मिला कि वे रज़ा के किसी चित्र में अंकित हो गये.
रज़ा ने कविता, दर्शन, विचार, अध्यात्म, हिन्दू धर्म, इस्लाम, ईसाइयत आदि से जो उन्हें रूचि और अपनी दृष्टि और मनःस्थिति के अनुकूल लगा उसे चुनकर अपना व्यापक कला-धर्म, एक तरह से, संगठित किया. उसमें शाश्वत और समकाल, स्मृति और सम्भावना, आत्मान्वेषण और कृतज्ञता सभी के लिए जगह थी. पर सभी उनकी कला को उद्दीप्त करने के उपादान थे. किसी और समवयसी चित्रकार ने शब्द को इतना महत्व नहीं दिया जितना रज़ा ने. श्रीकान्त वर्मा ने उन्हें अपने संग्रह ‘मगध’ की एक प्रति दी थी. उन्होंने मुझे एक पत्र में लिखा : ‘आजकल ‘मगध’ पढ़ रहा हूं. पहले तो यही सवाल रहा कि इसका अर्थ क्या है. फिर लगा कि यह श्रीकान्त वर्मा का गांव होगा, उनकी कल्पना के गणराज्य का कोई गांव. हिन्दी कोष में जानकारी हुई कि ‘मगध’ दक्षिणी बिहार प्रान्त का पुराना नाम है. पर बिहार के नक़्शे पर कहीं ‘मगध’ नहीं मिला. वासव दत्ता की तरह ढूंढ़ता रहा, पूछता रहा, कौसल, अवन्ती, बचई, बाबरिया से गोरबियो तब भी ‘मगध’ तक नहीं पहुंच पाया. अब फिर कविताएं पढ़ रहा हूं: नालन्दा, अवन्ती में अनाम, मथुरा का विलाप ... कुछ भी हो ‘मगध’ पहुंचना है. ये सहज और सुन्दर कविताएं हैं, वे पेचीले सवालों के बारे में.’
आलोचक-नेत्र
मुक्तिबोध ने अपनी कविता ‘आत्मवक्तव्य’ में एक पंक्ति लिखी है: ‘उन्हीं सीढ़ियों पर नये-नये आलोचक-नेत्र’. सीढ़ियों का बिम्ब मुक्तिबोध के यहां कई बार आता है. इसी कविता में उनकी एक और पंक्ति है जिस पर काफ़ी ध्यान गया है: ‘असंख्य इत्यादि-जनों का मैं भाग’. वे आगे यह भी कहते हैं कि ‘सच्चा है जहां असन्तोष//मेरा वहां परितोष’. एक दूसरी कविता में वे पहले ही कह चुके हैं: ‘... जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है.’
इस आत्म वक्तव्य में मुक्तिबोध अपनी चीर-फाड़ करते हैं जो कि उनकी समूची कविता का एक तरह से मूल स्वर रहा है. बाद में धूमिल को ‘दूसरे प्रजातंत्र’ की तलाश थी. उससे पहले मुक्तिबोध अपने अलग ‘आत्म-देश’ की बात कर चुके हैं. इसी कविता का समापन होता है इन पंक्तियों से :
ऐसी उन भयानक क्रियाओं में रम
कटे-पिटे चेहरों के दाग़दार हम
बनाते हैं अपना कोई अलग दिक्-काल
पृथक आत्म-देश
दृष्टि, आवेश.
क्षमा करें, अन्य-मति
अन्य-मुख मेरे परिजन.
अगर ‘अंधेरे में’ कविता की अंतिम दो पंक्तियां ‘परम अभिव्यक्ति अनिवार/आत्म सम्भवा’ याद करें तो लगता है कि मुक्तिबोध को इसका तीख़ा अहसास था कि जिस समाज का वे सपना देख रहे थे, वह मानो वास्तव में सम्भव नहीं था: वह ‘आत्मदेश’ ही हो सकता था जिसमें उनके ‘असंख्यक इत्यादि-जन’ शामिल होंगे और जिसमें वह ‘खोई हुई परम अभिव्यक्ति अनिवार/आत्म-सम्भवा’ मिल पायेगी. यह भी देखा जा सकता है कि कविता में मुक्तिबोध का ‘आलोचक-नेत्र’ हमेशा खुला रहा. इस हद तक कि कई बार लगता है कि वे कविता की काया में आलोचना भी लिख रहे हैं. उनकी कविता अपनी शक्ति में और अपनी कमज़ोरी में भी लगातार आलोचना-कविता है जैसी कि हिन्दी में न उनसे पहले थी, न उनके बाद है.
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