एक परिकथा

रज़ा-शती शुरू होने पर सुखद है कि कलाविदुषी यशोधरा डालमिया लिखित रज़ा की जीवनी अंग्रेज़ी में हार्पर कालिन्स से आ गयी है. इसका हिन्दी अनुवाद मदन सोनी कर रहे हैं और उम्मीद है कि मार्च 2021 में वह भी पुस्तकाकार प्रकाशित हो जायेगा. रज़ा का जीवन एक विशद-विपुल परिकथा है, गाथा है: एक वनग्राम में दस झोपड़ियों में से एक में 99 वर्ष पहले जन्मे एक ऐसे व्यक्ति की, जिसका बचपन जंगलों के नज़दीक या उनमें रहते बीता और जिसकी पृष्ठभूमि में प्रकृति की सुन्दरता का अपार आकर्षण और उससे भय तो था पर चित्रकला में लगभग पचहत्तर बरस बिताने का कोई पूर्वाभास दूर-दूर तक नहीं था. ज़िद, अथक परिश्रम, अदम्य जिजीविषा और खरी महत्वाकांक्षा से सैयद हैदर रज़ा उस मुक़ाम पर पहुंचे जहां कला में बिरले ही पहुंच पाते हैं.

यशोधरा जी ने कला पर एकाग्र और उस पर अटल रहे रज़ा की जीवन-यात्रा को अनेक तथ्यों, खोजों, स्वयं चित्रकार और उनके मित्रों की स्मृतियों, उनके पत्रों आदि से गूंथा है. इतने लम्बे जीवन का बखान उसके मर्मस्थलों और निर्णायक मुक़ामों को ध्यान में रखकर किया गया है. इसका भी वर्णन है कि कैसे रज़ा ने दक्षिण फ्रांस के एक मध्यकालीन गांव में अपना गरमियों का घर-स्टूडियो बनाकर अपने बचपन की पीछे छूट गयी प्रकृति से दुबारा सम्बन्ध जोड़ा. याद आया कि इन दिनों हमारी एक मित्र भारतविदुषी अनी मोन्तों रज़ा पर लिखे गये कुछ लेखों का एक संचयन फ्रेंच में तैयार कर रही हैं जिसका शीर्षक ‘रज़ा और प्रकृति की आत्मा’ जैसा कुछ है. उम्मीद है कि यह पुस्तक जून तक पेरिस में प्रकाशित हो जायेगी जब उनके 103 चित्रों की सबसे बड़ी प्रदर्शनी पोम्पिदू सेंटर नामक विश्वविख्यात कला-संग्रहालय में शुरू होने जा रही है.

दिल्ली की आकार प्रकार वीथिका में रज़ा के उनके दिल्ली निवास के दौरान याने अपने अन्तिम चरण में बनाये कुछ चित्रों को प्रदर्शित किया गया है. रज़ा भले चाहते रहे कि अन्त में वे रंगों का अपना जीवन-व्यापी मोह छोड़कर सिर्फ़ सफ़ेद रंग में ही काम करें पर ऐसा हुआ नहीं. उनका रंग-मोह अद्भुत रंगाधिकार भी था: इन चित्रों में भी रंगों की बहुत मुखर छटा है. वे कई रंग मिलाकर कई बार ऐसे नये रंग रच लेते गोकि वे सर्वथा अप्रत्याशित और अभूतपूर्व लगते और होते थे: अप्रत्याशित का रमणीय.

रज़ा-शती के अन्तर्गत ग्वालियर, भोपाल, कोलकता, जयपुर, मुम्बई आदि अनेक प्रमुख शहरों में ललित कला, कविता, शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय नृत्य, विचार आदि के विविध कला समारोहों की श्रृंखला को अन्तिम रूप दिया जा रहा है. रज़ा की कला ने अपना जो समय रचा और विन्यस्त किया वह कला-समृद्ध समय था. उसमें मानो सिर्फ़ चित्रकला का ही नहीं, कविता-संगीत-नृत्य का लालित्य भी दमकता और दीप्त होता था और है. यह कला है जो जीवन का रंगारंग उत्सव मनाती है और भरपूर मनुष्य होने का अद्भुत सत्यापन है. इस कला का सच्चा रसास्वादन एक साथ उसमें रंगों की कविता, रंगों का संगीत, रंगों का नृत्य देखना-समझना है.

सूर्योदय-सूर्यास्त बेहिसाब

‘‘यह सोचना सुखद है कि मुझ जैसे पुराने नागरिक ने इस लोक में रहते-रहते बेहिसाब सूर्योदय देखे. सूर्यास्त देखे. दुपहरें, सांझें और रातें. खूब तो सुहानी धूप सेंकी - तलुवों में स्पर्श की ओस की तरावट, सुहाती हवाएं, बरखा की बूंदियां, धवल-शुभ्र बर्फ़बारी, निश्शब्‍द, पतझरी पत्तों के मौन संवाद - फिर सर्दी, फिर गर्मी वह तपिश और बरसात में झम्मा-झम्म पानी.

हर बरस, पिछले बरस, अगले बरस लगा ही नहीं इस सुहाने लोक से कहीं और भी जाना है. कैसे हम भूल जाते हैं उस मुक़ाम को. वहीं जहां हमारी मंज़िल तय है.

रहते-रहते समय की सुगन्ध समेटते इतने बड़े जहान के मुखड़े भेंटते रात-दिन, तिथिवार, सप्ताह, मास, दशक फिर वही बरस-दर-बरस. बरस-दस-बरस चलती तिथियों के साथ लटकती सांसों की लड़ियां.’’

जीने के उजास से भरा यह अंश कृष्णा सोबती की गिरधर राठी से बातचीत का हिस्सा है जो सेतु प्रकाशन से ‘रचनाशील नागरिक का आत्मसंघर्ष’ शीर्षक से एक पुस्तिका के रूप में छपी है. सेतु ने ही कृष्णा जी की जीवनी ‘दूसरा जीवन’ नाम से, गिरधर राठी लिखित, छापी है. इतने लम्बे और विपुल-सक्रिय जीवन को जीवनीकार ने लगभग ढाई सौ पृष्ठों में समेटा है. यह जानना रोचक है कि एक सम्पन्न परिवार से आने वाली कृष्णा जी को, जब वे शिशु थीं तब, उनके मुंह में लगी दूध की बोतल समेत एक बन्दर उठा ले गया था पेड़ पर और फिर उनकी मां की हिक़मत-अमली से सही-सलामत वापस छोड़ गया था, बिसकिट के लालच में. कृष्णा जी ने बाक़ायदा घुड़सवारी सीखी थी और घोड़े ने उन्हें नीचे गिराया भी था. ‘दूसरा जीवन’ में उनके स्वाभिमान के कई प्रसंग बताये गये हैं. यह भी ग़ौर करने की बात है कि वे हमेशा अपने लेखक होने की गरिमा और ज़िम्मेदारी को लेकर सजग रहती थीं. विभाजन की यंत्रणा झेलने वालीं कृष्णा गुजरात के एक राजघराने में राजकुमार की गवर्नेस के रूप में भी काम कर चुकी थीं. उन्हें स्वतंत्र और लोकतांत्रिक भारत पर उचित ही गर्व था और वे उन मूल्यों के लिए आजीवन संघर्षरत रहीं जो इस देश को स्वतंत्र और लोकतांत्रिक बनाये रख सकें.

जीवनी में कृष्णा जी के अपने समकालीनों से संबंध और संवाद का विशद वर्णन है. इसका भी कि वे अपने से युवतर लेखकों का भी कितना सम्मान करती थीं और उन्हें अपने लेखन और महफ़िल में जगह देती रहीं. उन्होंने अपने उपन्यास ‘ज़िन्दगीनामा’ आदि को लेकर जो मुक़दमे लड़े उनका जिक्र भी इस पुस्तिका में हैं और लेखक के अपने आत्यंतिक अधिकारों की कितनी गहरी चेतना उनमें थी इसका पता चलता है. कृष्णा जी के दिल्ली में विख्यात उदारता के कई क़िस्से हैं. उनकी दबंग उपस्थिति, उनकी राजनैतिक समझ, उनकी स्पष्टवादिता, उनकी सदा सक्रिय निर्भयता आदि का बहुत रोचक ब्यौरों में इस जीवनी से पता चलता है. हर जीवनी अन्ततः अपूर्ण और अपर्याप्त होने के लिए अभिशप्त होती है. फिर भी, हम इस जीवनी से एक बड़े लेखक के जीवन के बुनियादी रूपाकार, उसकी अदम्य जिजीविषा, उसके साहित्य के कई सन्दर्भों से ऊष्मा और प्रामाणिकता से प्रतिकृत हो पाते हैं और यह बहुत आह्लादकारी है.

साधारणता की सृजनशीलता

कोई भी, चाहे वह कितना ही नाम-कीर्ति-हीन क्यों न हो, साधारण नहीं होता. मनुष्य होने का अर्थ और तर्क दोनों ही है कि वह, फिर भी असाधारण होगा, किसी ना किसी ढंग से. अजित कुमार एक ऐसे लेखक थे जिनका अपने साधारण होने पर, बिना किसी नाटकीयता के, इसरार सा था. यह भी उस समय जब ज़्यादातर लेखक अपनी असाधारणता या अद्वितीयता का ढोल बजाते रहते थे. अजित कुमार की इस ‘साधारणता’ ने कविता, कहानी, उपन्यास, ललित निबन्ध, आलोचना, संस्मरण आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण काम किया. युवा लेखक पल्लव ने 540 पृष्ठों में उनकी एक नयी संचयिता तैयार की है जिसे रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत सेतु प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. मुझे याद आता है कि जब मैं सेंट स्टीवेन्स कालेज में एमए का छात्र था तो मॉडल टाउन में रहने वाले अजित जी और देवीशंकर अवस्थी के यहां कई बार जाना होता रहा. अजित जी ने जब हॉट प्लेट खरीदी तो वह उस दौरान लेखकों के बीच वैसी ही चर्चा का विषय बनी थी जैसी कि उन्हीं दिनों रघुवीर सहाय द्वारा कार खरीदना.

बाद में शमशेर बहादुर सिंह भी वहां रहने लगे थे, मलयज के साथ. उन्होंने शमशेर जी पर अपने संस्मरण का समापन इस तरह किया है: ‘क्या हिन्दी-उर्दू वालों सब ने इसका अनुमान लगाया होगा कि दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘द्विभाषी कोश निर्माण’ में कार्यरत एक साधारण-सा कर्मचारी कैसी असाधारण सर्जनात्मक प्रतिभा से सम्पन्न और कितने असाधारण व्यक्तित्व का इनसान था? ‘निचुड़ी ईख’ या ‘मसले अंगूर’ की भांति अपने आपको देखने वाले शमशेर के सिलसिले में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन खूब याद आता है और किताबी नहीं जान पड़ता - ‘संसार ऐसों के ही नाते अब भी जीने-रहने योग्य बना है.’ इस अचरज से हमें भरता कि क्या भविष्य में भी वे लौटेंगे.’

दो छोटी कविताएं इसी संचयिता से:

दृष्टि
होंगे कुछ कबूतर
कुछ शेर
कुछ तोते…
घोंघे को दिखे…
सिर्फ घोंघे ही घोंघे.

अन्तर्विरोध
घोंघा है कीड़ा एक
गिजगिजा, गंदा, गीला, घिनौना.
शंख है उसी का घर
शुभ्र, सुदृढ़, मंगलमय, पवित्र.
जीवन वहीं
जहां परस्पर विरोध.