एनजेएसी के मसले पर सर्वोच्च न्यायालय के रुख के चलते उसके सम्मान के साथ बार-बार जो हो रहा है वह इससे पहले तक सोचना भी संभव नहीं था.
'मीलॉर्ड. आपको बुर्का पहन कर कोर्ट परिसर में निकलना चाहिए, ताकि आप स्वयं सुन सकें कि जजों के बारे में वकील किस तरह की बातें करते हैं. इससे आपको सड़ती हुई न्याय प्रणाली का भी प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाएगा. जिस तरह के वकीलों को जज नियुक्त किया जा रहा है, वह बेहद शर्मनाक है.' यह किसी फिल्म का संवाद नहीं बल्कि हकीकत में की गई एक बेबाक टिप्पणी है. वह भी किसी जिला न्यायालय में नहीं बल्कि देश की सबसे बड़ी अदलत में, और उसमें भी किसी एक न्यायाधीश के सामने नहीं बल्कि पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ के सामने की गई टिप्पणी.सर्वोच्च न्यायालय में इन दिनों एक ऐसे मामले की सुनवाई चल रही है जिससे भारतीय न्याय प्रणाली का भविष्य तय होना है. यह मामला है 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग' (एनजेएसी) की संवैधानिकता की जांच करने का. इसी मामले की सुनवाई के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने यह टिप्पणी की. यह इस मामले में की गई इकलौती ऐसी टिप्पणी नहीं है जो न्याय व्यवस्था और स्वयं न्यायाधीशों पर सीधा प्रहार करती हो. बल्कि ऐसा इन दिनों सर्वोच्च न्यायालय में लगातार हो रहा है.
यह इस मामले में की गई इकलौती ऐसी टिप्पणी नहीं है जो न्याय व्यवस्था और न्यायाधीशों पर सीधा प्रहार करती हो. बल्कि ऐसा इन दिनों सर्वोच्च न्यायालय में लगातार हो रहा है.सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में शायद यह पहली बार है जब उसके न्यायाधीशों की सत्यनिष्ठा पर लगातार सवाल उठ रहे हैं. न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया के बहाने उनकी योग्यता भी सवालों के घेरे में आ रही है और कई पूर्व न्यायाधीशों का नाम लेकर उन्हें अयोग्य बताया जा रहा है. सर्वोच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ अधिवक्ता कहते हैं, 'एनजेएसी मामले में सर्वोच्च न्यायालय का जो रुख रहा है, उसके कारण न्यायालय ने स्वयं ही अपना सम्मान खो दिया है. वह सम्मान अब कभी वापस नहीं आ सकता.'
सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति पिछले कई सालों से विवादास्पद रही है. साल 1993 में सर्वोच्च न्यायालय के नौ न्यायाधीशों की पीठ ने इस संबंध में एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था. इसके बाद से जजों दवारा जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम व्यवस्था की शुरुआत हुई थी. इस व्यवस्था पर समय-समय पर सवाल उठते रहे. 1998-2004 की एनडीए सरकार ने इस व्यवस्था को परखने के लिए जस्टिस वेंकटचलैया आयोग का गठन किया था. इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कॉलेजियम व्यवस्था को समाप्त कर एनजेएसी के गठन की सलाह दी थी. लेकिन 2004 में यूपीए सरकार बनने के बाद वेंकटचलैया आयोग की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में चली गई.
2014 में मोदी सरकार ने आते ही प्राथमिकता से कॉलेजियम व्यवस्था को समाप्त करने की ठानी. इसके लिए संविधान में संशोधन और एनजेएसी के गठन की जरूरत थी. यह काम भी जल्द ही कर लिया गया. संसद के दोनों सदनों के साथ ही देश भर के 20 राज्यों ने एनजेएसी को हरी झड़ी दिखा कर पास कर दिया. लेकिन कुछ लोगों ने एनजेएसी की संवैधानिकता को चुनौती दे दी और यह मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया. यहां जस्टिस केहर की अध्यक्षता में पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ अब इसकी सुनवाई कर रही है.
मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू ने एनजेएसी की पहली ही बैठक में भाग लेने से इनकार कर दिया. कानून के कई जानकार मानते हैं कि ऐसा करके उन्होंने ही कानून का उल्लंघन किया है.एनजेएसी पर सर्वोच्च न्यायालय का हर कदम शुरुआत से ही विवादास्पद बनता रहा है. मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू ने एनजेएसी की पहली ही बैठक में भाग लेने से इनकार कर दिया था. उनका कहना था कि जब तक सर्वोच्च न्यायालय एनजेएसी की संवैधानिकता पर फैसला नहीं कर लेता तब तक वे बैठक में शामिल नहीं होंगे. लेकिन कानून के कई जानकार मानते हैं कि ऐसा करने से मुख्य न्यायाधीश ने ही कानून का उल्लंघन किया है. इन लोगों के अनुसार एनजेएसी देश का कानून बन चुका था और उसका पालन करना मुख्य न्यायाधीश का दायित्व था. भले इसे न्यायालय में चुनौती दी गई थी लेकिन न्यायालय ने इस पर रोक लगाने जैसा कोई आदेश जारी नहीं किया था.
जस्टिस दत्तू के इस कदम के बाद से इस मामले को न्यायपालिका और सरकार के सीधे टकराव के तौर पर भी देखा जा रहा है. इस टकराव की झलक न्यायालय में चल रही सुनवाई में कई बार मिलती है. उदाहरण के लिए, बहस के दौरान न्यायालय ने केंद्र सरकार से सवाल किया था 'यदि हम एनजेएसी को असंवैधानिक घोषित कर दें और कॉलेजियम को ही वापस ले आएं तो?' इसके जवाब में सोलिसिटर जनरल रंजीत कुमार का कहना था, 'इस घोषणा को अमान्य करार दिया जा सकता है.' जब न्यायालय ने पूछा कि हमारे फैसले को कौन अमान्य करार देगा तो कुमार का जवाब था, 'संसद इसे अमान्य घोषित कर देगी.'
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय पर हितों के टकराव के आरोप भी लग रहे हैं. कई मौकों पर केंद्र सरकार द्वारा अपने खिलाफ दिए जा रहे तर्कों का जवाब याचिकाकर्ता की बजाय स्वयं न्यायालय ही देने लगता है. एनजेएसी का बचाव करते हुए केंद्र सरकार खुले तौर पर कॉलेजियम व्यवस्था को गलत ठहरा रही है. केंद्र का कहना है कि कॉलेजियम व्यवस्था के कारण कई अयोग्य लोग न्यायाधीश बनें हैं. लेकिन जिन न्यायाधीशों के सामने यह तर्क दिए जा रहे हैं, वे स्वयं उसी कॉलेजियम व्यवस्था के कारण न्यायाधीश नियुक्त हुए हैं. इसलिए भी कई मौकों पर न्यायाधीश कॉलेजियम का बचाव करने लगते हैं.
जब न्यायालय ने पूछा कि हमारे फैसले को कौन अमान्य करार देगा तो कुमार का जवाब था, 'संसद इसे अमान्य घोषित कर देगी.'एनजेएसी की सुनवाई के दौरान, कॉलेजियम व्यवस्था को भ्रष्ट बताते हुए अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी न्यायालय का कहना था, 'इस व्यवस्था ने कुछ ऐसे जज भी दिए हैं जो अपने 15 साल के कार्यकाल में कुल सौ फैसले भी नहीं लिखवा सके.' न्यायालय ने इस बात पर आपत्ति जताई और जिन न्यायाधीश का जिक्र रोहतगी कर रहे थे उनका रिकॉर्ड निकलवाने के आदेश दिए. इनसे पता चला कि उन न्यायाधीश महोदय ने अपने कार्यकाल में लगभग तीन सौ फैसले लिखवाए थे. इस पर रोहतगी ने न्यायालय से समय मांगा और इन आंकड़ों की पड़ताल शुरू की.
अपनी जांच में उन्होंने पाया कि इन न्यायाधीश ने पांच साल सर्वोच्च न्यायालय में रहते हुए सिर्फ तीन फैसले ही स्वयं लिखवाए थे. बाकी जिन फैसलों में इनका नाम था, वे किसी अन्य न्यायाधीश के लिखवाए हुए थे. सिर्फ पीठ में शामिल रहने के कारण ही उनका नाम भी इन फैसलों में लिखा हुआ था. साथ ही उच्च न्यायालयों के अपने दस साल के कार्यकाल में भी इन न्यायाधीश के सभी फैसले सिर्फ एक-एक पन्ने के ही थे. इन फैसलों को न्यायालय को सौंपते हुए रोहतगी का कहना था, 'यही है जो इन न्यायाधीश ने अपने पूरे कार्यकाल में लिखा है. इनके 89 फैसले कुल 91 पन्नों में लिखवाए गए हैं. मीलॉर्ड इन पर नज़र डालकर इन्हें बाहर फेंक सकते हैं.'
कॉलेजियम व्यवस्था के बचाव में जितने भी प्रयास न्यायालय कर रहा है, उतना ही इस व्यवस्था की खामियां सामने आ रही हैं और उतने ही प्रहार न्यायालय को झेलने पड़ रहे हैं. वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे कॉलेजियम व्यवस्था का विरोध करते हुए कहते हैं, 'इस व्यवस्था के कारण कुछ सबसे योग्य लोग कभी न्यायाधीश नहीं बन सके क्योंकि कॉलेजियम में बैठे लोगों को वे पसंद नहीं थे.' दवे ने न्यायाधीशों पर निशाना साधते हुए यह भी कहा कि 'शर्म की बात है कि नेताओं और फ़िल्मी अभिनेताओं के बचाव में हर न्यायालय अतिरिक्त प्रयत्न करने को तत्पर है और देश का आम नागरिक न्याय से वंचित है.'
सर्वोच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ न्यायाधीश बताते हैं, 'कॉलेजियम व्यवस्था में जजों की नियुक्ति का एकाधिकार न्यायपालिका तक ही सीमित था. अब यह एकाधिकार टूट रहा है तो न्यायपालिका इसे बचाने के भरसक प्रयास कर रही है. एक लिहाज़ से यह अच्छा ही है. इससे हमारी न्याय व्यवस्था का वह चेहरा सामने आ रहा है जिसपर आज तक कम ही चर्चा होती थी.'
'अगर सर्वोच्च न्यायालय एनजेएसी को किसी भी हालत में खत्म करने की मंशा दिखाने की जगह कॉलेजियम की खामियों को स्वीकार करके नयी व्यवस्था को सुधारने की बात करता तो उसकी इतनी छीछालेदर न होती. लेकिन अपनी नियुक्ति की अपने ही द्वारा बनाई व्यवस्था पर खुद ही सुनवाई करते हुए न्यायाधीशों ने उतनी सावधानी से काम नहीं लिया. इसका नतीजा यह हुआ कि वे इस मामले में अदालत के साथ-साथ खुद भी एक पार्टी बन गए. तो जाहिर है सामने वाले लोग भी उनके साथ वैसा ही व्यवहार करने लगे' सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ अधिवक्ता कहते हैं.
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