कोरियाई प्रायद्वीप इस समय फिर खतरनाक हालात की तरफ पहुंचता दिख रहा है. एक हफ्ते पहले अमेरिका ने अपने विमान वाहक पोत कार्ल विल्सन को पश्चिमी प्रशांत महासागर में तैनात कर चुका है. वैसे तो परमाणु ऊर्जा से संचालित यह पोत जापान के दो युद्धक पोतों के साथ इस क्षेत्र में युद्ध अभ्यास के लिए पहुंचा है लेकिन इसकी वजह से प्रायद्वीप में तनाव चरम पर पहुंच चुका है. उत्तर कोरिया ने चेतावनी दे दी है कि देश की सेना अमेरिकी विमान वाहक पोत को डुबाने के लिए तैयार है. वहीं चीन ने भी आशंका जाहिर की है कि यह तनाव किसी भी समय युद्ध का कारण बन सकता है.
तनाव की इस पूरी पृष्ठभूमि में दक्षिण कोरिया सबसे महत्वपूर्ण भूमिका में है. उत्तर कोरिया के लिए भले ही अभी अमेरिका पहले नंबर का दुश्मन हो, लेकिन क्षेत्र में दक्षिण कोरिया ही उसका स्थायी दुश्मन है. इन दोनों देशों के बीच पिछले छह दशक से तनातनी चल रही है और इस दौरान दक्षिण कोरिया के लिए अमेरिका उसका सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी रहा है. हालांकि फिलहाल उसने अपने को अमेरिकी-जापान युद्ध अभ्यास से दूर रखा है ताकि तनाव और न बढ़ जाए. फिर भी अगर अमेरिका या उत्तर कोरिया की तरफ से एक दूसरे के खिलाफ कोई युद्धक कार्रवाई होती है तो साफतौर पर इसमें दक्षिण कोरिया शामिल होगा.
जवाहरलाल नेहरू पहले से ही इस मुद्दे पर रूस और अमेरिकी सरकार के संपर्क में थे और गुटनिरपेक्षता की नीति के तहत पहले ही कह चुके थे कि वे किसी खेमे को अपना समर्थन नहीं देंगे
चीन उत्तर कोरिया का सबसे खास सहयोगी है. दोनों देशों के बीच 1961 में एक संधि भी हुई थी. इसमें कहा गया है कि यदि चीन और उत्तर कोरिया में से किसी भी देश पर अगर कोई अन्य देश हमला करता है तो दोनों देशों को तुरंत एक-दूसरे का सहयोग करना पड़ेगा. यानी कि अमेरिका ने अगर उत्तर कोरिया के खिलाफ कोई सैन्य विकल्प आजमाएगा तब चीन को इसका जवाब देना ही होगा. इस तरह से कोरियाई प्रायद्वीप तकरीबन सात दशक बाद फिर महादेशों के समर्थन-सहयोग से एक युद्ध में उलझ जाएगा.
हालांकि ऐसा पहली बार नहीं होगा क्योंकि उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के बीच 1960 के दशक में एक युद्ध लड़ा जा चुका है. पहली बार यह जरूर होगा कि इस युद्ध को रुकवाने में भारत की भूमिका तकरीबन न के बराबर होगी. जबकि इससे पहले जब 27 जुलाई, 1953 को दोनों देशों के बीच चला आ रहा तीन साल लंबा युद्ध खत्म हुआ तो यह दिन जितना कोरियाई प्रायद्वीय के लिए ऐतिहासिक था उतना ही भारत के लिए भी. माना जाता है कि आधुनिक विश्व के इसी घटनाक्रम की वजह से भारत पहली बार विश्व कूटनीति के मंच पर उभर कर आया था.
कोरिया युद्ध दरअसल शीत युद्ध की ही परिणति थी. कोरिया (संयुक्त) 1910 से लेकर 1945 तक जापान के कब्जे में रहा है. द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम दिनों में रूस ने जापान के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था और उसके लिए कोरिया जंग का मैदान था. वहीं अमेरिका भी यहां जापान के खिलाफ युद्धरत था. जब विश्व युद्ध समाप्त हुआ तो रूस और अमेरिका के बीच संधि हो गई और कोरिया को दो भागों - उत्तरी और दक्षिणी - में विभाजित कर ये दोनों देश संयुक्त रूप से उसे प्रशासित करने लगे. कोरियाई नेताओं से इन देशों ने वादा किया था कि पांच साल के बाद वे देश को उनके हवाले कर देंगे. लेकिन जनता इस व्यवस्था के खिलाफ थी. नतीजा यह हुआ कि जल्दी ही कोरिया में विरोध प्रदर्शन होने लगे.
इन परिस्थितियों में आखिरकार अमेरिकी प्रभाव वाले दक्षिणी हिस्से में 1948 के दौरान चुनाव हुए और वहां एक अमेरिकी समर्थक सरकार का गठन हो गया. उत्तरी क्षेत्र में रूस और चीन के समर्थन वाली साम्यवादी सरकार बनी. परस्पर विरोधी विचारधारा वाली सरकार के गठन और रूस-चीन और अमेरिकी खेमों के दखल के साथ ही यह तकरीबन उसी समय तय हो गया था कि कोरिया के ये दो हिस्से जल्दी ही एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे. उत्तर कोरिया ने पहले ही यह धमकी दे दी थी कि वह दक्षिण कोरियाई सरकार को गैरकानूनी मानता है.
इस दौरान चीन में कम्युनिस्टों और राष्ट्रवादियों के बीच लड़ाई भी चल रही थी. इसमें कोरिया के तकरीबन 50 हजार सैनिक कम्यूनिस्टों के पक्ष में लड़ाई कर रहे थे. 1949 में कम्युनिस्टों की जीत से साथ ही पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का गठन हो गया. चीन से कोरियाई सैनिक उत्तर कोरिया चले गए. इन सबके साथ चीन ने वहां टैंक सहित भारी हथियार भेज दिए. तब यहां किम इल सुंग (देश के वर्तमान तानाशाह किम जोंग उन के दादा) का शासन था. चीन से वापस आए सैनिक और रूस के शासक स्टालिन की शह पर उत्तर कोरिया ने 25 जून, 1950 को दक्षिण कोरिया पर अचानक आक्रमण कर दिया. कुछ ही दिनों के भीतर दक्षिण कोरिया का एक बड़ा हिस्सा उत्तर कोरिया के कब्जे में चला गया और इस तरह से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक और बड़ा युद्ध शुरू हो गया.
चीन के शीर्ष नेता चाऊ एन लाई ने बीजिंग में भारतीय राजदूत के जरिए नेहरू को संदेश भिजवाया कि यदि अमेरिका ने उत्तर कोरिया पर कब्जा करने की कोशिश की तो वह शांत नहीं बैठेगा
कुछ ही दिनों की लड़ाई में दक्षिण कोरिया हार की कगार पर पहुंच चुका था लेकिन इसी समय समय अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से एक प्रस्ताव पारित करवा लिया. इससे अमेरिका को संयुक्त राष्ट्र के झंडे तले सहयोगी देशों की सेना के साथ दक्षिण कोरिया की मदद करने का अधिकार मिल गया. इससे पहले कि पूरा दक्षिण कोरिया, किम इल सुंग के कब्जे में आता वहां अमेरिका के नेतृत्व में दस लाख सैनिक पहुंच गए.
भारत इस दौरान संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य था. सुरक्षा परिषद में उत्तर कोरियाई आक्रमण के खिलाफ आए प्रस्ताव के वक्त वह अनुपस्थित रहा था. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पहले से ही इस मुद्दे पर रूस और अमेरिकी सरकार के संपर्क में थे और गुटनिरपेक्षता की नीति के तहत कह चुके थे कि वे किसी खेमे का अपना समर्थन नहीं देंगे. इस युद्ध में एक पक्ष संयुक्त राष्ट्र की सेना थी. इसलिए अमेरिका चाहता था कि भारत भी इस लड़ाई में अपनी सेना भेजे. भारत सरकार ने इसके लिए मना कर दिया लेकिन सेना की मेडिकल कोर की एक टुकड़ी (60वीं पैराशूट फील्ड एंबूलेंस) संयुक्त राष्ट्र सैनिकों की मेडिकल सहायता के लिए भेज दी.
सितंबर, 1950 तक अमेरिकी नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र की सेना ने दक्षिण कोरिया का एक बड़ा हिस्सा अपने कब्जे में ले लिया था. अब यह सेना उत्तर कोरिया में चीन की सीमा के नजदीक बढ़ रही थी. चीन की कम्युनिस्ट सरकार के लिए ये परिस्थितियां स्वीकार्य नहीं थी. उस समय तक वहां की सरकार ने भी यह मान लिया था कि इस युद्ध में भारत और नेहरू महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. चीन के शीर्ष नेता चाऊ एन लाई ने बीजिंग में भारतीय राजदूत के जरिए नेहरू को संदेश भिजवाया कि यदि अमेरिका ने उत्तर कोरिया पर कब्जा करने की कोशिश की तो वह शांत नहीं बैठेगा और भारतीय प्रधानमंत्री को यह बात वाशिंगटन तक पहुंचानी चाहिए.
नेहरू को चीन के इरादों पर कोई शक नहीं था. उन्होंने यह चेतावनी अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन तक पहुंचा दी. हालांकि इसका कोई असर नहीं हुआ. अमेरिका के सैनिक जब उत्तर कोरिया की तरफ और आगे बढ़े तो नवंबर में अचानक चीन ने अमेरिका के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और पहली बार इस युद्ध में अमेरिकी सेना को पीछे हटना पड़ा.
अब इस क्षेत्र में लड़ाई लंबी खिंचने के आसार बन गए थे. इस समय भारत फिर सक्रिय हुआ और ब्रिटेन के सहयोग से चीन को युद्ध विराम के लिए तैयार कर लिया. लेकिन अमेरिका इसके लिए तैयार नहीं था. भारत ने संयुक्त राष्ट्र में एक शांति प्रस्ताव भी पेश किया लेकिन यहां ब्रिटेन ने उसका साथ नहीं दिया और प्रस्ताव खारिज हो गया. लड़ाई शुरू हुए एक साल से ज्यादा बीत गया था. चीन-उत्तर कोरिया और अमेरिका-सहयोगी देशों की सेनाएं अपने मोर्चों पर जमी हुई थीं. हालांकि अब तक दोनों पक्षों को यह समझ आ गया था कि इस युद्ध का कोई नतीजा नहीं निकलना है.
संयुक्त राष्ट्र ने युद्ध बंदियों की अदला बदली के लिए भारत की अध्यक्षता में एक आयोग के गठन को सहमति दी थी. इसमें पांच और देश भी शामिल थे
दोनों पक्ष समझौते की कोशिश कर रहे थे लेकिन आखिरी सहमति नहीं बन पा रही थी. दोनों के बीच सबसे बड़ा मुद्दा युद्ध बंदियों की अदला-बदली का था. युद्ध विराम की पूरी बात इसी पर अटकी थी. अमेरिका के कब्जे में विरोधी पक्ष के तकरीबन 1,70,000 सैनिक बंदी थे. चीन इन सब की रिहाई चाहता था. लेकिन अमेरिका का तर्क था कि सभी युद्ध बंदी चीन या उत्तर कोरिया जाना नहीं चाहते इसलिए वह इन्हें कम्युनिस्ट सरकार को नहीं सौंप सकता. अमेरिका ने इस परिस्थिति में मध्यस्थता के लिए भारत को आमंत्रित किया. नेहरू सरकार ने चीन को अपने रुख में परिवर्तन के तैयार कर लिया लेकिन इस बार अंतिम समझौते के पहले अमेरिका एक बार फिर बातचीत से पीछे हट गया.
भारत की मध्यस्थता का प्रस्ताव एक साल तक अटका रहा. इस बीच अमेरिका ने चीन को परमाणु बम हमले की भी धमकी दी लेकिन चीन ने उसके आगे झुकने से इनकार कर दिया. यह सब और आगे चलता लेकिन मार्च, 1953 में स्टालिन की मौत ने हालात बदल दिए. रूस की नई सरकार अब इस मसले को और लंबा नहीं खींचना चाहती थी. इसके बाद चीन ने भी अपने रुख में कुछ नरमी दिखाई और 27 जुलाई, को युद्ध विराम समझौते पर दस्तखत हो गए.
इस युद्ध विराम का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा युद्ध बंदियों की अदला-बदली का ही था. संयुक्त राष्ट्र ने इसके लिए भारत की अध्यक्षता में एक आयोग (न्यूट्रल नेशंस सुपरवाइजरी कमीशन या एनएनएससी) के गठन को सहमति दी थी. इसमें पांच देश शामिल थे. पश्चिमी देशों ने इसमें स्वीडन और स्विटजरलैंड को शामिल करवाया था तो चीन ने पौलेंड और चेकोस्लोवाकिया को. भारतीय सेना के प्रमुख जनरल केएस थिमैया इस आयोग के अध्यक्ष थे. शुरुआत में उत्तर कोरिया और चीन इस प्रस्ताव पर सहमत नहीं थे लेकिन आखिरकार कोई विकल्प न देखकर उन्हें इसके लिए तैयार होना पड़ा.
भारत ने युद्ध बंदियों की अदला बदली के लिए 6000 सैनिकों की अपनी ‘ इंडियन कस्टोडियल फोर्स (आईसीएफ)’ भी कोरिया में तैनात कर दी. एनएनएससी को सैनिकों से बातचीत करके तय करना था कि उनमें से कौन अपने देश वापस जाना चाहता है और कौन किसी तीसरे देश में शरण चाहता है. आयोग ने पहले चरण में सैकड़ों बीमार और जख्मी सैनिकों की अदला-बदली की व्यवस्था की थी. यह काम 1954 तक चला लेकिन इसके बाद चीन के बढ़ते विरोध के बाद भारत ने एनएनएससी का अध्यक्ष पद छोड़ दिया और शेष युद्ध बंदियों को संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में सौंप दिया. इसी के साथ भारतीय सेना की मेडिकल कोर और आईसीएफ की भी वापसी हो गई.
भारत ने युद्ध बंदियों की अदला बदली के लिए 6000 सैनिकों की अपनी ‘ इंडियन कस्टोडियल फोर्स (आईसीएफ)’ भी कोरिया में तैनात कर दी थी
कोरिया युद्ध विराम के साथ ही इस क्षेत्र में अस्थायी शांति हो गई थी. भारत इस पूरे घटनाक्रम में किसी पक्ष की तरफ नहीं था. लेकिन अपनी शांति की कोशिशों की वजह से तटस्थ देशों के बीच उसकी अच्छी-खासी साख बन गई. माना जाता है कि कोरिया युद्ध में अपनी भूमिका की वजह से ही नेहरू आनेवाले सालों में विश्व नेता के तौर पर उभरे थे.
अब अगर हम आज की परिस्थितियों पर गौर करें तो बीते कुछ सालों में भारत और अमेरिका की नजदीकी बढ़ने के साथ-साथ चीन से दूरी बढ़ी है. इसमें कोई दोराय नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश नीति के मोर्चे पर काफी सक्रिय हैं लेकिन फिलहाल उनकी नेहरू से तुलना नहीं की जा सकती. दूसरी तरफ आज दुनिया बहुध्रुवीय हो चुकी है जिसमें गुटनिरपेक्ष आंदोलन काफी हद तक अप्रासंगिक है. जाहिर है कि इस वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का नैतिक रसूख पहले जैसा नहीं है. इन वजहों से आज के हालात में अगर कोरियाई प्रायद्वीप में तनाव बढ़ता है तो भारत की शायद ही यहां कोई भूमिका रहे.
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