चंद्रगुप्त मौर्य के गुरू और प्रधानमंत्री चाणक्य एक झोपड़ी में रहते थे. एक दिन एक मेहमान उनसे मिलने पहुंचा. चाणक्य एक दिये की रोशनी में बैठे कुछ लिख रहे थे. मेहमान के पहुंचने पर उन्होंने वह दिया बुझा दिया और एक दूसरा दिया जलाकर मेहमान से बातचीत करने लगे. हैरत में आए मेहमान ने थोड़ी देर बाद इसका कारण पूछा. चाणक्य ने बताया कि पहले वाले दिये में तेल सरकारी खर्चे में से डाला गया था. उसकी रोशनी में वे सरकारी काम कर रहे थे. आगंतुक उनका निजी मेहमान था इसलिए उन्होंने दूसरा दिया जला लिया जिसमें उनके पैसे से लाया गया तेल डाला गया था. संदेश यह था कि शासक को सरकारी और निजी खर्च में अंतर न सिर्फ समझना चाहिए बल्कि करना भी चाहिए.

सदियों पुराना यह किस्सा कितना सच है कितना नहीं कहना मुश्किल है. लेकिन एपीजे अब्दुल कलाम से जुड़े ऐसे कई किस्से लोगों की स्मृतियों में हैं. बहुत से लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने इन किस्सों को अपने सामने घटते देखा है. दरअसल आज के दौर में जब जनसेवकों का एक बड़ा वर्ग राजा जैसा व्यवहार करता दिखने लगा है, कलाम ने सादगी, मितव्ययिता और ईमानदारी की कई अनुकरणीय मिसालें छोड़ी हैं. ये प्रेरणा भी हो सकती हैं और आईना भी.
एक बार कलाम के कुछ रिश्तेदार उनसे मिलने राष्ट्रपति भवन आए. कुल 50-60 लोग थे. स्टेशन से सब को राष्ट्रपति भवन लाया गया जहां उनका कुछ दिन ठहरने का कार्यक्रम था. उनके आने-जाने और रहने-खाने का सारा खर्च कलाम ने अपनी जेब से दिया. संबंधित अधिकारियों को साफ निर्देश था कि इन मेहमानों के लिए राष्ट्रपति भवन की कारें इस्तेमाल नहीं की जाएंगी. यह भी कि रिश्तेदारों के राष्ट्रपति भवन में रहने और खाने-पीने के सारे खर्च का ब्यौरा अलग से रखा जाएगा और इसका भुगतान राष्ट्रपति के नहीं बल्कि कलाम के निजी खाते से होगा. एक हफ्ते में इन रिश्तेदारों पर हुआ तीन लाख चौवन हजार नौ सौ चौबीस रुपये का कुल खर्च देश के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने अपनी जेब से भरा था.
अपना कार्यकाल पूरा करके कलाम जब राष्ट्रपति भवन से जा रहे थे तो उनसे विदाई संदेश देने के लिए कहा गया. उनका कहना था, ‘विदाई कैसी? मैं अब भी एक अरब देशवासियों के साथ हूं.’
इसी तरह एक बार कलाम आईआईटी (बीएचयू) के दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि बनकर गए थे. वहां मंच पर जाकर उन्होंने देखा कि जो पांच कुर्सियां रखी गई हैं उनमें बीच वाली कुर्सी का आकार बाकी चार से बड़ा है. यह कुर्सी राष्ट्रपति के लिए ही थी और यही इसके बाकी से बड़ा होने का कारण भी था. कलाम ने इस कुर्सी पर बैठने से मना कर दिया. उन्होंने वाइस चांसलर (वीसी) से उस कुर्सी पर बैठने का अनुरोध किया. वीसी भला ऐसा कैसे कर सकते थे? आम आदमी के राष्ट्रपति के लिए तुरंत दूसरी कुर्सी मंगाई गई जो साइज में बाकी कुर्सियों जैसी ही थी.
कलाम से जुड़ा तीसरा किस्सा तब का है जब राष्ट्रपति बनने के बाद वे पहली बार केरल गए थे. उनका ठहरना राजभवन में हुआ था. वहां उनके पास आने वाला सबसे पहला मेहमान कोई नेता या अधिकारी नहीं बल्कि सड़क पर बैठने वाला एक मोची और एक छोटे से होटल का मालिक था. एक वैज्ञानिक के तौर पर कलाम ने त्रिवेंद्रम में काफी समय बिताया था. इस मोची ने कई बार उनके जूते गांठे थे और उस छोटे से होटल में कलाम ने कई बार खाना खाया था.
अपना कार्यकाल पूरा करके कलाम जब राष्ट्रपति भवन से जा रहे थे तो उनसे विदाई संदेश देने के लिए कहा गया. उनका कहना था, ‘विदाई कैसी, मैं अब भी एक अरब देशवासियों के साथ हूं.’
आज कलाम नहीं हैं. फिर भी वे एक अरब देशवासियों के साथ हैं. उनके ये किस्से आज भी कइयों को प्रेरणा देने का काम कर रहे हैं.
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