कई दूसरी इमारतों की तरह पुणे की इस इमारत में भी रियल एस्टेट, वकालत और बीमा क्षेत्र से जुड़े ऑफिस हैं. लेकिन जो कमरा इसे खास बनाता है वह पहली नजर में आम सा लगता है—किसी ऐतिहासिक चीज की मौजूदगी से ज्यादा स्प्रेडशीट और ब्लूप्रिंट जैसे कारोबारी शब्दों के लिए बना. लेकिन इसी कमरे में उस व्यक्ति के आखिरी अवशेष रखे हुए है जिसने गांधी को मारा था.
यह आखिरी निशानी नाथूराम गोडसे का अस्थि कलश है. शीशे के एक केस में गोडसे के कुछ कपड़े और हाथ से लिखे नोट्स भी संभालकर रखे गए हैं. इसके पास ही एक टेबल पर गोडसे की एक तसवीर है. छरहरी काया और शांत आंखों वाली.
गांधी की हत्या के 68 साल बाद गोडसे से जुड़ी निशानियां शिवाजी नगर इलाके में बने जिस कमरे में रखी हैं वह अजिंक्य डेवलपर्स का दफ्तर है. इसके मालिक गोडसे के पोते अजिंक्य गोडसे हैं. द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह पूछने पर कि इस अस्थि कलश का विसर्जन क्यों नहीं किया गया, वे अपने पिता और नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे के बेटे नाना गोडसे की तरफ इशारा करते हैं. जवाब आता है, ‘इन अस्थियों का विसर्जन सिंधु नदी में होगा और तभी होगा जब उनका अखंड भारत का सपना पूरा हो जाएगा.’
इस कमरे में नाथूराम गोडसे की बसाहट आज भी है. हालांकि बाहर निकलने और शनिवार पेठ से लेकर सदाशिव पेठ जैसे इलाकों में घूमने पर इससे उलट अनुभव होता है. इन इलाकों में गोडसे का लंबे समय तक रहना हुआ, लेकिन यहां इस नाम से जुड़ी जानकारी की तलाश में निराशा ही हाथ लगती है.
334, शनिवार पेठ कभी गोडसे का निवास हुआ करता था. 78 साल पहले बने और अब जर्जर हो चुके इस घर में इन दिनों कई छोटी-छोटी प्रिटिंग प्रेस हैं. यहां किसी को उस कम बोलने वाले आदमी की याद नहीं जो पास में ही एक टेलर की दुकान भी चलाता था.
495, शनिवार पेठ वह पता है जहां से गोडसे द्वारा संपादित अखबार दैनिक अग्रणी-जो बाद में हिंदू राष्ट्र हो गया- छपता था. आज यहां कई छोटी-छोटी दुकानों सहित सुदर्शन आर्ट्स नाम की एक प्रिटिंग प्रेस है जिसमें शादी के कार्ड छपते हैं. यहां भी किसी को महात्मा गांधी की हत्या करने वाले शख्स के बारे में कुछ पता नहीं. एक दुकान के काउंटर पर खड़ी महिला कहती हैं, ‘मैं यहां 15 साल से रह रही हूं. मैने तो इस नाम का कोई आदमी नहीं देखा.‘
लेकिन सतह पर चल रही जिंदगी में थोड़ा सा गहरे जाने पर वह धारा मिलती है जो गोडसे को आज भी सहेजे हुए है. जिसमें गोडसे का जिक्र किसी नायक की तरह होता है. कुछ समय पहले एक साक्षात्कार में नाथूराम गोडसे की भतीजी हिमानी सावरकर का कहना था, ‘इतिहास की किताबों ने आपको बताया है कि नाथूराम गोडसे एक सिरफिरा था-एक पागल जिसने गांधी को मार दिया. लेकिन हकीकत में वे कौन थे. वे एक पढ़े लिखे आदमी थे. एक अखबार के संपादक थे. वे एक देशभक्त थे. एक स्वतंत्रता सेनानी.’ हिमानी का भी अब निधन हो चुका है.
हिमानी सावरकर के मुताबिक नाथूराम गोडसे एक दिलचस्प शख्सियत थे. उनका कहना था, ‘वे एक संपादक थे जिनका सम्मान था. उस जमाने में उनके पास एक कार होती थी. लेकिन वही आदमी टेलर के रूप में आरएसएस की वर्दियां सिलने का काम भी करता था.’ उनका कहना था कि गोडसे गांधी के विचारों से असहमति रखते हुए भी उनका सम्मान करते थे. लेकिन अपने आखिरी उपवास के रूप में गांधीजी ने जो धोखा किया उसके लिए उन्हें दंडित करना पड़ा. हिमानी की मानें तो शांत स्वभाव के गोडसे को हिंसा पसंद नहीं थी, बल्कि खून देखकर ही वह शख्स घबरा जाता था.
हालांकि पुणे में ही इस से इत्तेफाक न रखने वाले भी कई हैं. 2003 में गांधीवादी कुमार सप्तर्षि ने गोडसे के समकालीन रहे कई लोगों से बात की थी. यह बातचीत उन्होंने अपनी पत्रिका सत्याग्रही विचारधारा के एक विशेष अंक के लिए की थी जो हिंदुत्व पर था. सप्तर्षि कहते हैं, ‘उनका कहना था कि गोडसे के दिमाग में एक बात बहुत गहरे घुसी हुई थी—हिंदू इसलिए पौरुषहीन हो गए क्योंकि वे हिंसक नहीं थे और गांधी की अहिंसा ने तो उन्हें और भी शक्तिहीन बना दिया.’
(महात्मा गांधी की हत्या के जुर्म में 1949 में आज के ही दिन नाथूराम गोडसे को अंबाला जेल में फांसी हुई थी)
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