बात 1998-99 की है. कांट में हमारे मोहल्ले के पाठक जी ने एक मन्दिर बनवाया था. पाठक जी शाहजहांपुर के इस छोटे से कस्बे के गिने-चुने रईसों में थे. कोई संतान न होने की वजह से उन्होंने अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव पर अपना सब कुछ मन्दिर और भगवान की सेवा में लगाने का फैसला किया था.
मंदिर बनने के बाद कस्बे में भक्ति के कई नए काम शुरू हो चुके थे. ऐसे ही एक बार पाठक जी ने लोगों को कांवड़ ले जाने की राय दी. कई लोगों को राय अच्छी लगी तो कइयों को खर्च का डर भी सता रहा था. दरअसल, मोहल्ले के ब्राहमणों की आर्थिक स्थिति ठीक थी लेकिन अन्य लोग खेती या मजदूरी जैसे धंधों पर ही निर्भर थे. उस समय उत्तर भारत में कांवड़ लेकर जाना भी चलन में कम ही था (हमारे कस्बे में तो बिलकुल भी नहीं था). ऐसे में साइकिल पर कांवड़ ले जाने पर सहमति बनी.
कांवड़ों को बनाने और सजाने का काम शुरू हुआ. हम घर से भाग-भाग कर आसपड़ोस में बन रहीं कांवड़ों को देखने जाते थे. कांवड़ों की स्थिति भी उसके मालिक की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है. जो पैसे से अच्छी स्थिति में हैं उनकी कांवड़ें मन को ज्यादा मोहने वाली होती हैं. कांवड़ ले जाने वाले दिन तक कई रिश्तेदार भी आ गये. सभी को कांवड़ के नियम समझाए गए.
तय हुआ, सुबह 3 बजे कांवड़ लेकर निकलेंगे, ढाई से तीन घंटे में गंगा जी के घाट पर पहुंच जाएंगे. उसके बाद जल भरकर आठ बजे सुबह गोला गोकर्णनाथ के लिए निकलेंगे.
1- कांवड़ ले जाना एक तपस्या है. 2- कांवड़ को गंगाजल भरने से लेकर जलाभिषेक करने तक जमीन पर नहीं रखना है. 3- कांवड़ को सर के ऊपर से गुजारकर एक कंधे से दूसरे कंधे पर नहीं रखना है. 4- कांवड़ लेकर पैदल ही चलना है. 5- कांवड़ को गिरे हुए रेलवे फाटक के नीचे से नहीं निकालना है. 6- जो लोग व्रत रखकर कांवड़ ले जा रहे हैं, उनकी कांवड़ को बिना व्रत के लोगों को नहीं छूना है. 7- किसी कांवड़िये को चारपाई आदि पर नहीं बैठना है. लकड़ी के तख्त या जमीन पर दरी या चटाई बिछाकर ही बैठना है.
तय हुआ, सुबह 3 बजे कांवड़ लेकर निकलेंगे, ढाई से तीन घंटे में गंगा जी के घाट पर पहुंच जाएंगे. उसके बाद जल भरकर आठ बजे सुबह गोला गोकर्णनाथ के लिए निकलेंगे. दरअसल, गंगा नदी हमारे यहां से 55 किलोमीटर दक्षिण में है और गोला गोकर्णनाथ हमारे यहां से लगभग 80 किलो मीटर उत्तर-पूर्व में. यानी गंगा घाट से गोला गोकर्णनाथ की दूरी लगभग 135-140 किलोमीटर होती है.
गोला गोकर्णनाथ के बारे में बताते हैं कि यहां के मंदिर में जो शिवलिंग है उसे रावण ने स्थापित किया था. कहा जाता है कि कांवड़ यात्रा की शुरुआत भी रावण ने ही की थी. इसीलिए हमारे आसपास के इलाके के सभी कांवड़िये गंगा जी से जल भरकर गोला गोकर्णनाथ के इस शिवलिंग पर जलाभिषेक करने आते हैं.
ऐसी उमस वाली गर्मी में 135 किलोमीटर का सफर वह भी साइकिल से या पैदल, तपस्या नहीं तो और क्या है? हमारे नगर से गई इस पहली कांवड़ यात्रा के बाद जब कांवड़िये लौट कर आये, तो आधे लोगों की हालत बहुत ख़राब हो चुकी थी. कइयों के पैरों में छाले थे तो कइयों की चप्पलें टूटने के कारण उनके पैरों में घाव हो गए थे. ज्यादातर लोगों को इस यात्रा के बाद बुखार आ गया था. ऐसे में 10-11 साल का मैं हमेशा यही सोचता कि इतने दर्द के बाद भी लोग कांवड़ यात्रा पर क्यों जाते हैं?
लेकिन, इतना सब होने बाद भी अगले साल सावन के महीने में ये सभी फिर कांवड़ ले जाने को तैयार दिखे. अब हमारे शहर में यह सिलसिला चल निकला था. लोग हर साल कांवड़ लेकर जाने लगे थे. मेरे पिता जी भी एक बार गए थे. फिर मेरे बड़े भाई ने जाना शुरू किया.
वक्त के साथ गंगा जी के घाट से लेकर गोला गोकर्णनाथ तक तक सब कुछ एक सा रहा, बस बदली तो सिर्फ एक चीज, लोगों ने इस यात्रा को वक्त के साथ आसान बनाना शुरू कर दिया. जैसे कि साइकिल की जगह मोटरसाइकिल और फिर गाड़ी लेकर जाने का चलन आ गया.
हर साल कांवड़ियों को मैं नगर की सीमा तक छोड़ कर आता था. हमेशा यही सोचता कि आखिर मेरा नंबर कब आएगा. मां से जब भी जाने को कहता तो वे कह देतीं थोड़े बड़े हो जाओ.
हां, हमारे यहां तीन चार सालों के बाद एक बदलाव और हुआ. सवर्ण जाति के लोगों ने अन्य लोगों के साथ कांवड़ लेकर जाने से मना कर दिया. इसकी मुख्य वजह थी कि एक बार यात्रा के दौरान किसी ने कुछ कांवड़ियों के पैसे निकाल लिये थे. ऐसे में हमेशा गरीबी ही किसी को चोर ठहराने का पैमाना बनती है, सो वह यहां भी बन गई. अब हमारे कस्बे से तीन ग्रुप अलग-अलग जाने लगे. इन तीनों समूहों में भक्ति से ज्यादा आपसी प्रतिस्पर्धा थी. अगर कोई टाटा 407 लेकर जाता तो दूसरा समूह उससे बड़ी गाड़ी लेकर जाने की कोशिश करता. अगर एक ग्रुप चार साउंड का म्यूजिक सिस्टम ले जाता तो दूसरा उससे बड़ा लेकर जाता.
हर साल कांवड़ यात्रा पर जा रहे कांवड़ियों को मैं नगर की आखिरी सीमा तक छोड़ कर आता था. हमेशा यही सोचता कि आखिर मेरा नंबर कब आएगा. मां से जब भी जाने को कहता तो वे कह देतीं थोड़े बड़े हो जाओ फिर जाना और पिता जी से कहने की कभी हिम्मत ही नहीं पड़ी.
आखिर, एक दिन वह भी आया जब इन कांवड़ियों के साथ मैं भी नगर की सीमा को पार कर गया. साल 2006 के सावन से मेरी कांवड़ यात्राओं की शुरुआत हो गई. उस साल कुल मिलाकर 10 कांवड़ें थीं और लोग थे करीब 40. इनमें 40 साल से ऊपर के मात्र 10-15 लोग ही थे. हम टाटा 407 से सुबह चार बजे निकलकर साढ़े पांच बजे गंगा घाट पंहुच गए. वहां जाकर स्नान किया, फिर छोटी-छोटी कैनों में जल भरकर कांवड़ में रखा. 150 रुपये में टी शर्ट और निक्कर खरीदा और फिर इन्हें पहनकर बन गए हम भी भोले. सात बजे के करीब हम लोग कांवड़ लेकर चल दिये.
जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है हमारे ग्रुप में एक कांवड़ पर चार लोग थे. जब एक सदस्य कांवड़ लेकर चलता तो उस कांवड़ से जुड़े बाकी सदस्य गाड़ी में आराम करते. एक बार में एक आदमी को करीब चार किलोमीटर कांवड़ लेकर चलना पड़ता. गाड़ी को चार किलोमीटर आगे ले जाकर रोक दिया जाता और फिर पेड़ की छांव में दरी बिछाकर हम अपने कांवड़ लाने वाले साथियों का इंतज़ार करते. इस इंतज़ार के दौरान हम लोग तरह-2 के मजाक करते, कभी भजन गाते तो कभी भजनों पर नाच भी होता. ऐसे में उम्रदराज लोग, हम युवाओं को यात्रा के दौरान अनुशासन और धैर्य बनाए रखने की सलाह देते. दरअसल, घर से निकलते समय सभी के माता-पिता इन्हीं लोगों से कहते कि हमारे बच्चों का ख्याल रखना क्योंकि सभी यह भी जानते थे कि इन सब को 2 दिन की छूट मिली है और ये जमकर मस्ती करेंगे.
दस बजे के करीब मेरा कांवड़ लेकर चलने का नंबर आया. पहला फेर था इसलिए थकान तो थी ही नहीं, दौड़ते-भागते 4 किलोमीटर का सफर पूरा कर दिया. दूसरी बार मेरा नंबर करीब दो बजे आया. सड़क पर दूर-2 तक सन्नाटा था. धूप इतनी तेज मानो सूर्य भगवान हमारी इस तपस्या को भंग करने के लिए कोई कसर न छोड़ रहे हों. इस परीक्षा से हमारी हिम्मत और बढ़ जाती. भोले के जयकारों के साथ हम आगे बढ़ते चले जाते.
दोपहर के इस फेर के बाद मेरी हालत ऐसी हो गई मानो पिता जी ने दौड़ा-दौड़ा कर गन्ने से पीटा हो. ऐसी हालत में कांवड़ अपने साथी को देने के बाद, सिर पर पानी का भीगा रुमाल बार-बार रखा, तब कहीं राहत मिली.
इस चार किलोमीटर के फेर को पूरा करने के बाद हालत ऐसी हो गई मानो पिता जी ने दौड़ा-दौड़ा कर गन्ने से पीटा हो. ऐसी हालत में कांवड़ अपने साथी को देने के बाद, सिर पर पानी का भीगा रुमाल बार-बार रखा, तब आधा-एक घंटे में कहीं राहत मिली. व्रत होने की वजह से हम लोग अमरूद और केला ही खा रहे थे.
दूसरे फेरे में बार-बार ऐसा लगता कि जल्दी से चार किलोमीटर पूरे हों और कैसे ही अपनी गाड़ी दिख जाये. हालांकि, इस बात को कोई कांवड़िया स्वीकार नहीं करता. कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि पहले तो ऐसा सोचना ही गलत है और अगर ऐसा सोच भी लिया तो किसी को बताना और भी गलत है. फिर बात अपनी इज्जत की भी होती है. क्योंकि ऐसी हालत में घर लौटकर मजाक उड़ना तय होता है
जैसे-तैसे तीन-चार घंटे आराम के लिए फिर मिले. अगर रात को चलना है तो इस समय आराम करना बेहद जरूरी है. लेकिन, मात्र एक घंटे आराम के बाद, गाडी की छत पर बैठे मस्ती ले रहे अपने दोस्तों को देखकर, मैं खुद को रोक न सका और खुद भी पहुंच गया गाड़ी की छत पर. हमारे ग्रुप के उम्रदराज लोगों ने टोका भी, लेकिन वह उम्र का ऐसा दौर था कि हमने उनकी एक नहीं सुनी. हालांकि, इस मौज मस्ती में हमने कभी किसी अन्य राहगीर को नुकसान नहीं पंहुचाया. बल्कि, कई बार कुछ राहगीरों को अपनी गाड़ी में जगह ही दी.

आखिरकार, करीब साढ़े छह बजे मेरा फिर से कांवड़ ले जाने का नंबर आया. शाम का वक्त था, इसलिए धूप का डर नहीं था तो लगभग 10 मिनट तक हम कांवड़ लेकर भागते चले गए. अभी एक से डेढ़ किलोमीटर ही चल पाया था कि ऐसा लगने लगा कि मानो अब गिरे कि तब गिरे. पैर जैसे पत्थर बन गए थे. लेकिन कांवड़ हाथ में लेकर आराम भी नहीं किया जा सकता, नहीं तो आप अपने बाकी साथियों से पिछड़ जाएंगे. ऊपर से तेज रफ़्तार गाड़ियों से भी खुद को बचाना होता है, क्योंकि शाम के समय ट्रैफिक भी कुछ ज्यादा ही होता है. ऐसे में एक चाचा जी की बात याद आ रही थी कि ‘कांवड़ लेकर कभी भागना मत.’
ऐसी हालत में संगीत उत्साह बढाने में अहम भूमिका निभाता है. जब मैंने साथ में चल रहे कांवड़ियों के एक ट्रैक्टर पर बज रहा सोनू निगम का भजन सुना तो मानो पैरों में जान आ गयी और मैं उत्साह से भर गया. मुझे आज भी उसके बोल याद हैं- ‘चाहे छाये हों बादल काले, चाहे पांव में पड़ जाएं छाले, चाहे आग गगन से बरसे, चाहे पानी को मन तरसे, चल रे कांवड़िया शिव के धाम, चल रे कांवड़िया शिव के धाम’
रास्ते में लगे भंडारों में लोगों का सेवा भाव देखकर ह्रदय में और भी भक्ति भाव जाग जाता. ऐसा लगता जैसे पूरा संसार हमारी इस तपस्या में हमारे साथ है. लेकिन हकीकत इससे अलग भी होती है.
मन में इस भजन को सुनकर यही विचार आया कि यह एक तपस्या है, तो फिर आराम के बारे में क्या सोचना. उस दिन एक बात और समझ में आई कि कैसे सूरदास जी के समय से लेकर आज तक भजन के बिना भक्ति संभव नहीं है. भोलेनाथ की कृपा से किसी तरह तीसरा फेरा भी पूरा हुआ, और मैं जाकर लेट गया अपनी गाड़ी में. लेटे-2 यही सोच रहा था कि अब कभी कांवड़ लेकर दौड़ नहीं लगाऊंगा.
रात हुई तो कुछ व्रत का खाने की इच्छा हुई, रास्ते में लगे भंडारों में लोगों का सेवा भाव देखकर ह्रदय में और भी भक्ति भाव जाग जाता. ऐसा लगता जैसे पूरा संसार हमारी इस तपस्या में हमारे साथ है. लेकिन हकीकत इससे अलग भी होती है. ज्यादातर कांवड़ियों से लेकर भंडारा लगवाने वाले सेठों तक हर कोई अपने साल भर के पापों को सावन के महीने में धोने की होड़ में लगा रहता है.
हमारे यहां के कई मिल मालिकों को ही ले लीजिये, शाहजहांपुर के जिला अधिकारी ने जिनकी मिलों में छापा डाल कर गलत काम होते पकड़ा, आटे और खान-पान की चीजों में मिलावट के चलते जिनकी मिलों को सील कर दिया, वे सभी भंडारा खिलाकर सावन के महीने को साबुन की तरह इस्तेमाल कर अपने पापों को धोते नज़र आते हैं. ऐसे ही कई कांवड़िये जो हमारे यहां अवैध लकड़ी के कटान से लेकर कई गलत धंधे करते हैं, इस सावन के महीने को अपने पापों से मुक्ति पाने के लिए इस्तेमाल करते हैं.
मेरा अगला फेर रात 10 बजे के करीब पड़ा जो शाहजहांपुर शहर के अंदर का था. इस फेरे में हमारी गाड़ी हम लोगों के साथ ही चलती रही. ये निर्णय साथ के अनुभवी लोगों ने लिया था. वे किसी अनहोनी घटना को रोकने के लिए ऐसा कर रहे थे. ऐसा करके वे शहर की भीड़ में हमारी गाड़ी में नाच रहे युवाओं सहित कांवड़ लेकर चल रहे लोगों पर भी ध्यान दे सकते थे. दरअसल, शहर के अन्दर कई मंदिरों पर रूक-रुक कर युवा गाड़ी में म्यूजिक बजाकर जम कर नाच रहे थे, क्योंकि शाम को ठंडक होती है और दिनभर की थकान भी इस मस्ती में दूर हो जाती है. शहर की भीड़भाड़ में कांवड़ लेकर चलने में इसलिए भी ज्यादा थकान नहीं होती है क्योंकि वहां की चहल-पहल में ध्यान बंटा रहता है. लेकिन इस दौरान कांवड़ की सुरक्षा का बहुत ध्यान रखना पड़ता है.
शहर पार कर, मैंने कांवड़ अपने साथी को सौंप दी. गाड़ी के अंदर सभी थके हुए हमारे साथी घोड़े बेच कर सो रहे थे और वहां मेरे लेटने की जगह ही नहीं बची थी. इसलिए, पसीने से लथपथ मैं, गाड़ी के ड्राइवर वाले केबिन के ऊपर जाकर लेट गया. ऐसे में कुछ ऐसी चीजें भी देखने को मिलीं जो मैंने पहले नहीं देखीं थीं. हमारे ही कई युवा साथी छुप-छुप कर सिगरेट-बीड़ी सुलगा रहे थे. इनमें से कुछ मुझ से भी छोटी उम्र के थे. कुछ भांग के गोले खा रहे थे. युवाओं को जब घर से छूट मिलती है तो वे उस छूट का पूरा फायदा उठाते हैं. यह शायद हमारी यात्रा का नकारात्मक पहलू था. यह देखते-समझते ठंडी-2 हवा में कब आंख लग गई पता ही नहीं लगा.
रात के अंधेरे में सड़क पर एक छोटे गड्ढे में मेरा पैर पड़ा, तो इतना आनंद मिला कि बताया नहीं जा सकता. गड्ढे में पैर पड़ने से गिरने का डर तो था, लेकिन इसके बाद बार-2 दिल किसी पानी भरे गड्ढे को ही ढूंढ़ रहा था.
अचानक, किसी ने आकर थपथपाया और कहा - अरे उठो, दो बज गए हैं, तुम्हारा नंबर है, जाओ कांवड़ पकड़ो. ऐसा लगा जैसे अभी पांच मिनट पहले ही सोया था. यही इच्छा होती थी कि बस सोता ही रहूं. लेकिन फिर ख्याल आया कि इतना ही सरल होता तो कांवड़ यात्रा को तपस्या का नाम क्यों दिया जाता. यह सब सोचते हुए और आंखें मलते हुए उठकर चल ही दिया. ऐसे में कई लोग उठते भी नहीं हैं और बेचारे पहले से कांवड़ लेकर आ रहे उनके साथियों को लगातार चलते रहना पड़ जाता है.
मैं चल दिया कांवड़ लेकर. जैसे-तैसे कुछ दूरी के बाद नींद खुली. इस फेर से पहले मैं 16 किलोमीटर की यात्रा कर चुका था, अब पैर में छाले पड़ने लगे थे. तलवों से ऐसा लग रहा था मानो गर्मी निकल रही हो. जिस रास्ते से मैं जा रहा था, वहां कुछ देर पहले बारिश हुई थी. अचानक अंधेरे में सड़क पर एक छोटे गड्ढे में मेरा पैर पड़ा, तो इतना आनंद मिला कि बताया नहीं जा सकता. गड्ढे में पैर पड़ने से गिरने का डर तो था, लेकिन इसके बाद बार-2 दिल किसी गंदे पानी भरे गड्ढे को ही ढूंढ़ रहा था.
अब हम लखीमपुर खीरी में थे. लगभग 7,680 वर्ग किमी क्षेत्रफल के साथ यह उत्तरप्रदेश का सबसे बड़ा जिला है और इसे सबसे हरे-भरे जिलों में भी गिना जाता है. यह दक्षिण में शाहजहांपुर की सीमा से लेकर उत्तर में नेपाल तक फैला हुआ है. गोला गोकर्णनाथ तीर्थ स्थल इसी जिले में आता है.
सुबह चार बजे के करीब मैंने कांवड़ अपने साथी को दी. गाड़ी के पास गया तो पता चला कि हमारे एक साथी सोते हुए चलती गाड़ी से नीचे गिर गए. लेकिन ये सज्जन भांग के इतने ज्यादा नशे में थे कि इन्हें अपनी चोटों और दर्द का अहसास ही नहीं था. यह शायद भोले नाथ की कृपा ही थी कि सुबह इनका नशा उतरने पर भी इन्हें दर्द का अहसास नहीं हुआ. इससे कई लोगों की भोले नाथ के प्रति श्रद्धा और भक्ति और बढ़ गई.
अब मेरा जमकर सोने का वक्त था, नहीं तो दिन में चैन नहीं मिलता. आखिरकार, मैं चार बजे से सात बजे तक जमकर सोया. उठा तो कुछ सुकून मिला. नहा-धोकर आठ बजे के करीब फिर कांवड़ पकड़ी और सुबह-सुबह भोले के गीत गाते हुए चल दिए. रास्ते में लगभग दो किलोमीटर तक माला जंगल के कुछ हिस्से से निकले, तो सुबह के शांत वातावरण में कोयलों की कूं-कूं करती आवाजें और बंदरों की अठखेलियों ने मन को ऐसा सुकून दिया, जिसकी शब्दों में व्याख्या नहीं की जा सकती.
मैंने अपना ये आखिरी फेर पूरा किया, फिर गाते-नाचते गोला गोकर्णनाथ पंहुच गए. शहर में घुसते ही झमाझम बारिश हुई. कांवड़ यात्रा के दौरान अगर बारिश न हो तो कांवड़ियों को मजा नहीं आता.
यह मेरी कांवड़ यात्रा का आखिरी चरण था. सुबह का वक्त था तो हम लोगों ने चार की जगह पांच किलोमीटर चलने की ठानी. क्योंकि इसके बाद तो कांवड़ जलाभिषेक के वक्त ही हाथ में आनी थी.
मैंने अपना ये फेरा पूरा किया, फिर आराम करके, गाते-नाचते आपस में हंसी मजाक करते गोला गोकर्णनाथ पंहुच गए. शहर में घुसते ही झमाझम बारिश हुई. कांवड़ यात्रा के दौरान अगर बारिश न हो तो कांवड़ियों को मजा नहीं आता. नाचते-गाते हम लोग मंदिर के द्वार पर पंहुचे. मंदिर के बाहर लंबी कतार लगी थी, इसलिये आधा घंटा इंतज़ार करने के बाद शिव-शंभू के दर्शन हुए और हम सभी ने शिव के जयघोषों के साथ उनका जलाभिषेक किया.

इस बीच हमारे घरों से भोजन लेकर एक चाचा जी मंदिर पंहुच चुके थे. जलाभिषेक के बाद घर से आया खाना सभी ने साथ बैठकर खाया. दो दिन और एक रात की कड़ी मेहनत के बाद खाना वैसा ही लग रहा था जैसा लगना चाहिए था.
इस तरह हमारी कांवड़ यात्रा संपन्न हुई. घर आकर एक बड़े बर्तन में नमक का गर्म पानी भरकर, उसमें 2 घंटे पैर डालकर बैठा, तब जाकर पैरों की जलन और दर्द में कुछ राहत मिली. हालांकि, थकान जाते-जाते दो-तीन दिन लग गए लेकिन इतना सब सहने के बाद भी मन को एक अजीब किस्म की शांति और सुकून मिल रहा था.
बात अगर कांवड़ ले जाने वालों की करें तो उस समय सबसे ज्यादा प्रतिशत ऐसे लोगों का होता था, जो वाकई किसी कष्ट से पीड़ित थे और भोले बाबा की भक्ति करके अपनी समस्याओं का हल चाहते थे. कई लोग मन्नत पूरी होने पर या पिछले सालों में बोलने की वजह से भी कांवड़ लेकर जाते थे. एक बात तय है कि ज्यादातर युवाओं के लिए भक्ति से ज्यादा मस्ती प्राथमिकता तब भी होती थी और अब भी होती है. लेकिन, पहले साथ में कई अनुभवी लोग भी जाते थे जो किसी अप्रिय घटना होने से पहले ही स्थिति को संभाल लेते थे.
इनमें से कई लोग ऐसे भी होते हैं जो साल भर अपने ना-कुछ होने की ग्रंथि से जूझते हैं और अचानक ही कांवड़ियों में शामिल होकर तरह-तरह की आवभगत के अधिकारी बन जाते हैं.
पिछले कुछ सालों में युवाओं की भागीदारी इस यात्रा में काफी बढ़ गयी है. युवाओं को इस यात्रा में इसलिए मजा आता है, क्योंकि भक्ति और भीड़ के नाम पर इन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं होता. इनमें से कई ऐसे लोग भी हैं जो साल भर अपने ना-कुछ होने की ग्रंथि से जूझते हैं और अचानक ही कांवड़ियों में शामिल होकर तरह-तरह की आवभगत के अधिकारी बन जाते हैं. एक झुंड या कहें भीड़ की एक अलग ही मानसिकता होती हैं. ये भीड़ ही होती है जो आदमी को तानाशाह होने का एहसास दिलाती है, और अगर वह भीड़ युवाओं की हो तब गड़बड़ होने की आशंका भी बनी ही रहती है.
शहरों में कुछ लोग कांवड़ियों को केवल उत्पाती ही समझते हैं, लेकिन हर सिक्के के दो पहलू होते हैं. इनमें से कई लोग वे होते हैं, जो मन्नत पूरी होने पर या वैसे ही, पैसों की कमी के कारण वैष्णो देवी, शिर्डी और केदारनाथ की यात्रा पर नहीं जा सकते. ऐसी हालत में वे इस तपस्या जैसी कांवड़ यात्रा पर ही चल देते हैं. आश्चर्य तो तब होता है, जब दिल्ली और मुम्बई के पॉश इलाकों में रहने वाले कुछ रईस और पढ़े-लिखे लोग, मध्यम या निम्न वर्ग से जुड़ी इस कांवड़ यात्रा को तो बेवकूफी मानते हैं लेकिन खुद भगवान की जगह आसाराम बापू, निर्मल बाबा और राधे मां जैसे लोगों को न जाने किस-किस तरह से पूजते हैं. अपने ऐसे कामों में इन लोगों को बेवकूफी नज़र क्यों नहीं आती?
कांवड़ियों में कुछ लोग ऐसे भी तो हो सकते हैं जो भक्तिभाव से गांधी जी के चरखे की तरह आत्मशुद्दि और आत्मपरीक्षा के लिए कांवड़ लेकर जाते हों. फिर भले ही वे बड़े-बड़े शब्दों में ऐसा कह नहीं सकते हों. मैं अब तक तीन बार कांवड़ लेकर गया हूं जिसमें से आखिरी बार आज से आठ साल पहले था. मैंने हमेशा यह सोचकर कांवड़ चढ़ाई कि साल में दो दिन भक्ति और अपनी सहनशक्ति की परीक्षा को भी दे दिए जाएं.
मैं इतना पढ़ने-लिखने, इंजीनियर और पत्रकार बनने के बाद आज भी कांवड़ यात्रा पर जा सकता हूं. बल्कि मौका मिलने पर जाना ही चाहता हूं. अगर मैं इसका खर्च वहन कर सकूं और मुझे कांवड़ की तरह की परीक्षा और भक्ति का आनंद हज यात्रा में मिले तो मैं खुशी-खुशी उसका भी हिस्सा बन सकता हूं. मेरे लिए भगवान की भक्ति का अर्थ शिवलिंग की मूर्ति या केवल हिंदुओं द्वारा माने जाने वाले भगवानों पर फूल-दूध चढ़ाना नहीं हैं बल्कि अपने होने पर कृतज्ञता जताने का साधन है यह मेरे लिए.
मुझे ऐसी श्रद्धा-भक्ति बिलकुल ठीक नहीं लगती, जिसमें आप भगवान के बनाये इंसानों को तकलीफ देने के बाद मंदिर में जाकर कहते हैं कि ‘लो बाबा कष्ट उठाकर हम आ गए तुम्हारे दरबार में, अब करो कृपा हम पर.’
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