तलाश करने वाले ठीक हों तो वाल्मीकि की जाति की तलाश एक ऐसे मोड़ पर समाप्त हो सकती है जिसमें न कोई दलित होगा न ब्राह्मण.
कर्नाटक में 14 सदस्यों की एक कमेटी यह जानने के लिए बनाई गई है कि रामायण के रचयिता वाल्मीकि की जाति क्या है? यह विवाद कन्नड़ लेखक केएस नारायणाचार्य की किताब ‘वाल्मीकि यारू? (कौन हैं वाल्मीकि?)’ को लेकर शुरू हुआ है. नारायणाचार्य ने लिखा है कि वाल्मीकि एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे.
इस बात पर कन्नड़ के कई लेखकों ने तीखी प्रतिक्रिया जताई. वाल्मीकि को अपनी जाति का मानने वाले नाविक समुदाय ने इसका विरोध किया तो सरकार ने किताब प्रतिबंधित कर दी. किताब के प्रकाशकों ने हाइकोर्ट की शरण ली. हाइकोर्ट ने सरकार से पूछा कि इस पाबंदी का आधार क्या है. अदालत के आदेश से पाबंदी हटा ली गई है, लेकिन अब एक कमेटी यह पता करेगी कि वाल्मीकि की जाति क्या थी और अदालत को इसके बारे में सूचना देगी.
नारायणाचार्य की किताब ‘कौन है वाल्मीकि’ दरअसल कहीं न कहीं इस खयाल की मारी है कि हिंदुओं का सबसे पवित्र ग्रंथ किसी ब्राह्मण के अलावा कोई और कैसे रच सकता है.
यह विवाद कई लिहाज से दिलचस्प है. मामला एक ऐसे चरित्र का है जिसकी ऐतिहासिकता तक अभी सुनिश्चित नहीं हुई है. वाल्मीकि को लेकर बस यह कथा प्रचलित है कि उनका मूल नाम रत्नाकर था, वे डाकू थे, उन्होंने जब यह देखा कि उनके अपने लोग उनके पेशे के प्रति श्रद्धा नहीं रखते, उनके पाप में हिस्सा बंटाने को तैयार नहीं हैं, तो विरक्त होकर उन्होंने डकैती छोड़ दी और तपस्या में जुट गए. इसके बाद क्रौंच वध हुआ, पक्षी के एक जोड़े के आर्त्तनाद ने उनमें इतनी पीड़ा भर दी की कि वे रामकथा लिखने बैठ गए.
यह मिथक कथा है. इस पर या तो विश्वास किया जा सकता है या अविश्वास. इसका एक सामाजिक पक्ष बस इतना है कि इससे देश का एक दलित तबका अपनी वंचित हैसियत के बीच अस्मिता का बोध हासिल करता है. इसमें उसे एक बहुत हल्की संभावना यह लगती है कि आने वाले दिनों में कहा जा सकता है कि सबसे पवित्र और प्रचलित हिंदू ग्रंथ की रचना किसी ब्राह्मण ने नहीं एक दलित ने की है. इस नाते धर्म की सीढ़ी में उसकी हैसियत ऊंची हो सकती है.
नारायणाचार्य की किताब ‘कौन है वाल्मीकि’ दरअसल कहीं न कहीं इस खयाल की मारी है कि हिंदुओं का सबसे पवित्र ग्रंथ किसी ब्राह्मण के अलावा कोई और कैसे रच सकता है. इस लिहाज से यह उस विरासत पर अपनी मुहर लगाने की कोशिश है जो दलितों के नाम है. दलित अपनी आर्थिक-सामाजिक स्थिति की वजह से उस पर ऐसा वर्चस्ववादी दावा करने की हैसियत में नहीं हैं कि वे हिंदुत्व की सरणियों को उलट-पलट सकें.
जब आप वाल्मीकि की जाति खोजने निकलेंगे तो आपको इतिहास के तथ्य नहीं, बल्कि सभ्यताओं के झुटपुटे में चली आ रही कहानियां मिलेंगी.
हमारे पास देश भर में जितनी रामकथाएं सुलभ हैं उनको देखते हुए कहा जा सकता है कि वाल्मीकि राम कथा के पहले सर्जक नहीं थे. राम कथा समाज के विकास के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ी. बस इतना संभव है कि वाल्मीकि एक ऐसे दौर में हुए हों जब राज्य और समाज-व्यवस्था पहले से ज़्यादा सुस्थिर हो चुकी थी और उन्होंने अपनी राम कथा में शायद इन सबको पिरोने की कोशिश की.
रामायण के अलावा जो दूसरा हिंदू ग्रंथ है- महाभारत, उसके रचनाकार की तुलना में अगर देखें तो वाल्मीकि कम कल्पनाशील दिखाई पड़ते हैं. व्यास के महाभारत में कई बार कल्पनाशीलता भी चरम पर दिखती है और तर्कशीलता भी. अक्सर यह कहा जाता है कि महाभारत मूल्यों के संकट के दौर का महाकाव्य है. रामायण उसके मुकाबले एक रामराज्य की सपाट सी परिकल्पना प्रस्तुत करती है. और यह परिकल्पना भी सीता के गृह त्याग से लेकर अश्वमेध यज्ञ तक कई बार संकटग्रस्त दिखती है.
इस लिहाज से देखें तो व्यास वाल्मीकि के मुक़ाबले ज़्यादा दुस्साहसी सर्जक भी दिखते हैं. क्या इसलिए कि एक समाज के लिए आदर्श की रचना करते-करते वाल्मीकि को भी खुद को बदलने की आवश्यकता महसूस हुई होगी? क्या एक दलित ब्राह्मणत्व साबित करके ही अपनी एक सामाजिक हैसियत बना सकता था?
इस सवाल का जवाब जाने-माने कवि विष्णु खरे की कविता देने की कोशिश करती है. उनके संग्रह ‘पाठांतर’ में ‘प्रक्षिप्त’ नाम की एक कविता है जो शंबूक वध को रामकथा की दलित विरोधी राजनीति से जोड़कर देखती है. इसमें शंबूक अपने वध पर अपने सजातीय वाल्मीकि की चुप्पी पर सवाल करता है- ‘मैंने कोई क्षमा याचना नहीं की, यह तो इसी से स्पष्ट है कि / मुझे जीवित नहीं छोड़ा गया / मेरा वध इसलिए किया गया सुमहातेज कि आशंका थी / मैं अपने सजात्य के पक्ष में युक्तियां देने जा रहा हूं / और उनके प्रचलित होने के पूर्व ही / मेरा सिर कटना अनिवार्य था / आपने सब देखा-सुना होगा त्रिकालदर्शी / मगर आपकी कथा में संकेत तक नहीं’.
अगर वर्चस्ववादी जातियां वाकई दलित और ब्राह्मण के इस फर्क को ख़त्म करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहती हैं तो उन्हें दलितों को उनका वाल्मीकि लौटाना होगा.
लेकिन क्या वाल्मीकि की जाति का कोई ऐतिहासिक प्रमाण ढूंढ़ा जा सकता है? जब आप वाल्मीकि की जाति खोजने निकलेंगे तो आपको इतिहास के तथ्य नहीं, बल्कि सभ्यताओं के झुटपुटे में चली आ रही कहानियां मिलेंगी. इनमें दोनों तरह की कहानियां मिलेंगी - उस वर्चस्ववादी संस्कृति की भी जो किसी भी श्रेष्ठ चरित्र पर अपनी जाति और पहचान की मुहर लगाने की कोशिश करती है, और हाशिए पर पड़े उन समुदायों की भी जिनकी कहानियां इन कहानियों के समानांतर चुपचाप यहां-वहां दबी मिलती हैं. इस लिहाज से हो सकता है, एक नहीं कई वाल्मीकि मिलें और हमारे पास उनमें से किसी एक को चुनने की, उस पर अंतिम मुहर लगाने की सुविधा न हो.
दरअसल तलाश करने वाले ठीक हों तो वाल्मीकि की जाति की तलाश अंत में ऐसे मोड़ पर समाप्त हो सकती है जिसमें न कोई दलित होगा न ब्राह्मण. मगर दुर्भाग्य से अभी तक का इतिहास याद दिलाता है कि वर्चस्ववादी जातियां ऐसी तलाश की बजाय अपनी यथास्थिति को सुरक्षित रखने के प्रयास ही करती रही हैं. अगर वे वाकई दलित और ब्राह्मण के इस फर्क को ख़त्म करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहती हैं तो उन्हें दलितों को उनका वाल्मीकि लौटाना होगा.
लेकिन अभी तो खेल वाल्मीकि को हड़पने का चल रहा है.