कुछ समय पहले मुंबई यूनिवर्सिटी में एक पुस्तक विमोचन के दौरान एनसीपी की सुप्रिया सुले ने सांगली की अपनी एक चुनावी सभा का अनुभव बांटा था. उन्होंने बताया ‘मैं सांगली में टायलेट की स्थिति में बारे में कुछ निश्चिंत नहीं थी, इस कारण मैंने 18 घंटे तक पानी नहीं पिया और मैं बेहोश हो गई...कुछ समय बाद जब सुषमा स्वराज से इस घटना के बारे में बात हुई, तो उन्होंने कहा कि वे भी बिल्कुल ऐसी ही स्थिति का सामना कर चुकी हैं!’

अगर हमारे देश में शौचालय की अनुपलब्धता के कारण सुप्रिया सुले और सुषमा स्वराज जैसी सक्षम महिलाओं को भी 18 घंटे तक बिना पानी पिये रहना पड़ जाता है तो उन अनगनित सामान्य महिलाओं का क्या जो ऐसी स्थिति में कुछ घंटे या दिन नहीं बल्कि पूरा जीवन बिताती हैं? अफसोस कि ऐसे अनुभव के बाद भी इन स्त्री नेताओं ने अपने-अपने क्षेत्रों में महिलाओं के लिए शौचालय निर्माण की कोई पहल नहीं की.

स्त्रियों के विशेषाधिकारों की बात जोर-शोर से की जा रही है, लेकिन अभी तक उनके सामान्य अधिकारों का ही संघर्ष खत्म नहीं हुआ है. सार्वजनिक स्थलों में साफ-सुथरे शौचालय स्त्रियों का बुनियादी हक हैं, लेकिन स्त्रियों की इतनी अहम जरुरत को भी समाज और सरकारों ने हमेशा से नकारा है. पुरुषों के लिए सार्वजनिक जगहों पर शौचालयों का न होना समस्या तो है लेकिन उस तरह से नहीं क्योंकि वे पेशाब करने के लिए शौचालयों के मोहताज नहीं! वे किसी भी गली-मोहल्ले, नुक्कड़, मैदान व सार्वजनिक जगह के साथ निसंकोच शौचालय जैसा व्यवहार करने को आजाद हैं! (अपवाद यहां भी हैं.)

देश के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने स्त्रियों की इस अव्यक्त समस्या पर नोटिस लिया. स्कूलों में लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालयों की व्यवस्था को शिक्षा के बुनियादी अधिकार से जोड़ा गया है. अक्टूबर 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने स्कूलों में शौचालयों की व्यवस्था को लेकर बेहद महत्वपूर्ण आदेश दिया था. सभी राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों को आदेश दिया गए थे कि वे सभी स्कूलों में अस्थाई शौचालयों की व्यवस्था करें. इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी शौचालय निर्माण के ऊपर अपने भाषणों और योजनाओं में विशेष जोर दिया है.

लेकिन आज भी स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आ पाया है. लेकिन अपने आप में यही बेहद महत्वपूर्ण है कि कम से कम लड़कियों/स्त्रियों के लिए स्कूलों, सार्वजनिक जगहों, और संस्थानों में अलग महिला शौचालयों की जरूरत को समझा तो गया. यह एक महत्वपूर्ण स्त्री संवेदी सूचक है.

भारत में चल रहे कुल स्कूलों में से 74 प्रतिशत सरकारी हैं. एनजीओ प्रथम द्वारा ग्रामीण इलाकों में शिक्षा की स्थिति पर कराए गए सर्वे के मुताबिक यहां के करीब 38 फीसदी सरकारी स्कूलों में इस्तेमाल कर सकने लायक टॉयलेट हैं ही नहीं. उस पर भी अगर लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेटों की बात की जाए तो 47 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में उनके लिए अलग से इस्तेमाल कर सकने लायक टॉयलेटों की व्यवस्था नहीं है.

स्कूल, कॉलेज, ऑफिस व अन्य सार्वजनिक स्थलों पर महिला शौचालयों का न होना सिर्फ इनकी कमी का मसला ही नहीं है. शौचालयों के घोर अभाव के चलते जो शारीरिक परेशानियां लड़कियों व महिलाओं को होती हैं, चिंता का विषय वे हैं. ज्यादा देर तक पेशाब रोकने और पानी कम पीने के कारण लड़कियों/स्त्रियों के शरीर में कई खतरनाक बीमारियों के पैदा होने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है. गुर्दे की तरह-तरह की बीमारियां, किड़नी फेल होना, पेशाब की नलियों में रूकावट या फिर कई तरह के यूरीनरी इन्फेक्शन आदि का स्तर स्त्रियों में इसी वजह से कई गुना बढ़ जाता है. एक शोध में सामने आया है कि भारत में 16 साल की उम्र से पहले 4 प्रतिशत लड़कों के मुकाबले 11 प्रतिशत लड़कियों में पेशाब संबंधी इन्फेक्शन पाया जाता है.

शौचालय निर्माण जैसी बुनियादी सुविधा उपलब्ध कराने भर से बहुत सारी बच्चियां व स्त्रियां कितनी गंभीर बीमारियों की चपेट में आने से बच सकती हैं. जिस समाज में लड़कियां, स्त्रियां अपनी प्रकट बीमारियों के प्रति भी चुप रहने को बाध्य हों, वहां पेशाब संबंधी ‘गुप्त’ बीमारियों के बारे में घरवालों को बताने और उनका इलाज कराने की भला क्या और कितनी संभावना है? इन गुप्त व प्रकट बीमारियों से अकेले चुपचाप लड़ती बच्चियों, लड़कियों व स्त्रियों का गुनहगार कौन है? या कहें कि गुनहगार कौन-कौन नहीं है?

दिन के कई घंटे पेशाब रोककर कक्षा में बैठे रहने की मजबूरी भी बच्चियों को स्कूल जाने के लिए हतोत्साहित करती है. मासिक चक्र के समय में स्कूल में शौचालयों की कमी कितनी ज्यादा खलती है, क्या कभी किसी ने पूछा है इन बच्चियों से? स्कूलों में अलग से स्त्री शौचालयों का न होना लड़कियों के स्कूल न जाने या बीच में ही स्कूल छोड़ने का बड़ा कारण है. यह कितना-कितना शर्मनाक है 65 साल के प्रौढ़ गणतंत्र के लिए!

ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत की स्त्रियों को ही सार्वजनिक स्थानों व संस्थानों में महिला शौचालयों की घोर कमी का सामना करना पड़ रहा है. पड़ोसी देश चीन में भी महिला शौचालयों की स्थिति बेहद खराब है. इसी से तंग आकर कॉलेज की छात्राओं के एक समूह ने 2012 में ‘आक्यूपाई वॉल स्ट्रीट‘ की तर्ज पर ‘आक्यूपाइ मैनस टॉयलेट‘ जैसे प्रतिरोध की शुरूआत की. सार्वजनिक महिला शैचालयों की कमी के विरोध में कालेज की छात्राओं के एक समूह ने पुरुष शौचालयों का उपयोग करते हुए सार्वजनिक महिला शौचालयों को बढ़ाने की मांग की. लिंग समानता की तरफ पहल के तौर पर वहां इस अधिकार की मांग की गई. 1996 में ताईवान में भी इस तरह की घटनाएं सामने आई थीं.

न सिर्फ सार्वजनिक महिला शौचालयों की कमी एक समस्या है बल्कि आज भी सिर्फ 46.9 प्रतिशत घरों मे ही शौचालय की सुविधा है. नई जनगणना में सामने आया है कि घरेलू शौचालय की बजाए मोबाइल रखने वाले घरों की संख्या ज्यादा है. कितने आश्चर्य का विषय है कि स्त्री के दिल, दिमाग, शरीर और एकांत पर भी पहरे बिठाने वाला समाज उसके नितांत निजीकर्मों संबंधी जरूरत के प्रति कितना उदासीन और घोर असंवेदनशील है.

बेटियों के विवाह के वक्त निश्चित तौर पर सोने के गहने चिंता का विषय होते है, लेकिन शौचालय की उपलब्धता नहीं. हालांकि सोने के गहने और कपड़े-लत्तों की कमी लड़की की बीमारी का कारण नहीं बनते जबकि शौचालय का न होना कई तरह की बीमारियों और तनाव का बड़ा कारण होता है. इसी से समझा जा सकता है कि समाज झूठी शान के प्रति तो सजग है, लेकिन स्त्रियों की बुनियादी जरूरतों के प्रति बेहद ज्यादा लापरवाह और असंवेदनशील!

केरल की एक एजेंसी ने कुछ समय पहले शहर के मुख्य स्थानों और पर्यटक स्थलों पर विशेष रूप से महिलाओं के लिए शौचालय बनाने की एक परियोजना शुरू की है. देश में पहली बार इस तरह की अनूठी पहल हो रही है. राज्य महिला विकास निगम द्वारा इस योजना के पहले चरण में 35 शी-टायलेट बनाये जाएंगे. इन शौचालयों में महिलाओं के लिए सैनिटरी नैपकिन वेंडिंग मशीनें और इस्तेमाल किए जा चुके नैपकिन को जलाने वाली मशीनें भी लगाई जाएंगी. केरल के एरनाकुलम में लड़कियों के एक स्कूल में देश का पहला इलेक्ट्रानिक शौचालय भी बनाया गया है.

सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए, जिस बुनियादी ढांचे को खड़ा करने की जरूरत है उसमें केरल जैसे सार्वजनिक महिला शौचालयों का निर्माण एक महत्वपूर्ण घटक है. कितनी अजीब बात है कि विज्ञान और तकनीक के चलते इंसान बड़ी-बड़ी और असंभव चीजें तो जान गया है लेकिन स्त्रियों की बुनियादी जरूरतों से हम अब भी कितने अंजान है? सवाल तो यह भी है कि क्या सच में कोई स्त्रियों की बुनियादी जरूरतें जानना चाहता भी है या नहीं?