क्या उत्तर प्रदेश सरकार ने सरकारी खजाने का मुंह बड़े और बुद्धिजीवियों के लिए इसलिए खोला है ताकि वे अपना मुंह यश भारती सम्मान लौटाने के लिए खोलने से पहले दस दफा सोचें
हिंदी के लेखक उदय प्रकाश ने तो अपना पुरस्कार प्रोफेसर एमएम कुलबर्गी की हत्या के बाद लौटाया था लेकिन साहित्य अकादमी के पुरस्कारों को लौटाने का तांता लगा दादरी की घटना के बाद से. 7 अक्टूबर को सबसे पहले अंग्रेजी लेखिका नयनतारा सहगल ने अपना पुरस्कार लौटाया, उसके बाद अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी सहित तमाम भाषाओं के लेखकों ने एक के बाद अकादमी सम्मान लौटाने की घोषणा कर दी.
दादरी में जो हुआ उसे लेकर भाजपा की भूमिका और प्रधानमंत्री की लंबी रही चुप्पी पर सवाल हैं तो सवाल राज्य सरकार के ऊपर भी कम नहीं है जिसकी राज्य की कानून-व्यवस्था में जिम्मेदारी सीधी और पूरी है. इसके अलावा इतनी बड़ी घटना के बाद सिवाय दसियों लाख रुपये देने के राज्य सरकार का व्यवहार ऐसा कतई नहीं था कि उसे जिम्मेदारी भरा कहा जा सकता हो. बिसाहड़ा में इतना सब हुआ लेकिन न तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और न ही उनके तथाकथित मुस्लिम चेहरों में से ही किसी ने यहां आकर मुसलमानों को ढाढस बंधाने और सौहार्द का माहौल बढ़ाने की किसी तरह की कोशिश की. ऐसा करना इसलिए भी जरूरी था कि दादरी की घटना उसके पास ही पिछले साल मुजफ्फरनगर में हुए दंगों की पृष्ठभूमि में हुई थी.
सरकार को शायद लगता है कि एक लाख का साहित्य अकादमी सम्मान या बिना पैसों का पद्म सम्मान लौटाना किसी के लिए आसान है लेकिन 11 लाख नकद और 50 हजार रुपये की पेंशन वाला यश भारती लौटाना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर होगा
दादरी के बाद ही प्रदेश में ऐसी कई घटनाएं घट चुकी हैं जो दूसरों के अलावा प्रदेश प्रशासन पर कई तरह के सवाल उठाती हैं. मिसाल के तौर पर 8 अक्टूबर को बिलकुल दादरी जैसे कारण से मैनपुरी में दंगें हो चुके हैं. नौ अक्टूबर को ग्रेटर नोएडा में दलित दंपत्ति को पुलिस द्वारा नंगा करने के आरोप सामने आ चुके हैं. और फिर राज्य सरकार में सबसे शक्तिशाली मंत्री आजम खान का पूरी गंभीरता से दिया गया मजाकिया बयान भी तो है जिसमें वे अपनी सरकार की जिम्मेदारी यूनाइटेड नेशन के ऊपर डालने की बात करते हैं.
इसके अलावा मुजफ्फर नगर के पीड़ितों को न्याय मिलने का सवाल भी अभी खड़ा ही हुआ है. कुछ दिन पहले ही अखिलेश सरकार के एक मंत्री पर ही शाहजहांपुर के एक पत्रकार की हत्या के आरोप लग चुके हैं. और सपा के छुटभैय्ये नेता तक जज से लेकर बड़े अधिकारियों तक को धमकाने-हड़काने में लगे हुए हैं.
तो ऐसे में सवाल यह उठता है कि हाल ही में यश भारती पुरस्कारों की राशि 5 लाख से 11 लाख करने के बाद अखिलेश सरकार ने इसे पाने वालों को पेंशन देने की घोषणा क्यों की है? और पेंशन भी कोई छोटी-मोटी नहीं 50 हजार रुपये महीने की, जो इस समय शायद एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को भी नहीं मिलती.
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सरकार को लगा हो कि हालात यूपी में ठीक नहीं हैं, पुरस्कार लौटाने का माहौल बना हुआ है तो हो सकता है कि केंद्र सरकार की तरह उसके लिए भी मुश्किलें खड़ी हो जायें. ऐसे में ज्यादातर काम को पैसे से करने में विश्वास करने वाली सपा सरकार ने सरकारी खजाने का मुंह बुद्धिजीवियों के लिए खोल दिया ताकि वे अपना मुंह पुरस्कार लौटाने के लिए खोलने से पहले दस दफा सोचें.
अगर मायावती फिर से सरकार में आती हैं तो कई सौ लोगों (जिनमें कई बड़े और बुद्धिजीवी भी शामिल है) को दी जाने वाली करोड़ों रुपये महीने की यश भारती पेंशन खत्म करना भी चाहें तो कर सकेंगीं?
उसे शायद लगता है कि एक लाख का साहित्य अकादमी सम्मान या बिना पैसों का पद्म सम्मान लौटाना किसी के लिए आसान है लेकिन 11 लाख नकद और 50 हजार रुपये की पेंशन वाला यश भारती सम्मान लौटाना किसी के लिए असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है.
यहां एक महत्वपूर्ण बात और है. 1994 में मुलायम सिंह द्वारा स्थापित किये जाने के बाद से दो बार मायावती की सरकारें यश भारती सम्मान को खत्म कर चुकी हैं. लेकिन अगर मायावती फिर से सरकार में आती हैं तो कई सौ लोगों (जिनमें कई बड़े और बुद्धिजीवी भी शामिल है) को दी जाने वाली करोड़ों रुपये महीने की यश भारती पेंशन खत्म करना भी चाहें तो कर सकेंगीं?
यश भारती किसी राज्य सरकार द्वारा दिया जाने वाला सबसे बड़ा सम्मान है. दिये जाने वाले लोगों की संख्या के हिसाब से भी और धन के लिहाज से भी. इसी साल कुल 56 लोगों को 11 लाख रुपये वाला यह सम्मान दिया गया है. इनमें मुलायम सिंह के पैतृक गांव सैफई के ग्राम प्रधान भी शामिल हैं. एक ऐसे प्रदेश में जिसमें सरकारें धन की कमी का रोना जरूरत के हर वक्त रोती रही हैं, दसियों करोड़ रुपये हर वर्ष केवल सम्मानों और उसे पाने वालों की पेंशन पर खर्च करना कितना उचित है, थोड़ी चर्चा इस बात पर भी की जा सकती है.