आज पतियों की उम्र का ‘लाइसेंस रिन्यू’ कराने की तारीख है. पिछले एक हफ्ते से पूरा उत्तर भारत करवाचौथ के ‘पर्व’ की तैयारियों में जुटा था. बाहर बाजार में करवाचौथ की रौनक दिख रही थी तो घर में टीवी पर. बीते कुछ सालों में, बाजार के इसी अति उत्साह का नतीजा है कि छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब सब जानने लगा है कि करवाचौथ का व्रत पत्नियां अपने पतियों की लंबी उम्र के लिए करती हैं. बाजार की बढ़ती महिमा के कारण आजकल पत्नियां इस दिन पतियों से कोई न कोई तोहफा भी जरूर पाने लगी हैं.
करवाचौथ से जुड़ी ये बातें और बाजार का प्रचार कुछ ऐसा संदेश देता है कि यह स्त्रियों का ही त्योहार है. लेकिन क्या सच में ऐसा है? इस त्योहार का एक सामान्य-सा विश्लेषण तो यह नहीं बताता. बल्कि ध्यान से देखें तो पता चलता है कि मामला उल्टा है.
करवाचौथ या ऐसे तमाम व्रतों के नाम स्त्रियों का खून खौलना चाहिए. उनके मन में अशांति और क्रोध बढ़ना चाहिए क्योंकि यह व्रत पुरुष को स्त्री से श्रेष्ठ, ज्यादा कीमती और ज्यादा जरूरी ठहराता है
शुद्ध संस्कृति प्रेमी करवाचौथ को इस तरह भी परिभाषित कर सकते हैं या करते हैं, कि यह कितनी स्वस्थ और अनोखी परंपरा है जहां पत्नी अपने जीवनसाथी की लंबी उम्र के लिए व्रत करती है. लेकिन वे इस परंपरा का बस एक ही पक्ष देखते हैं. यह परंपरा ठीक उसी समय अस्वस्थ और भेदभाव से भरी हो जाती है जब स्त्री, पुरुष की लंबी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य के लिए व्रत करती है. ऐसे ही व्रत मांएं बेटों के लिए भी करती हैं. यदि मांएं और पिता दोनों ही बेटियों के लिए भी व्रत करते और पति भी पत्नी की लंबी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य के लिए व्रत करते तब क्या इसे ज्यादा स्वस्थ और अनोखी परंपरा नहीं माना जाता? हालांकि आजकल कुछ पत्नीसंवेदी पति, पत्नियों का साथ देने के लिए निर्जला व्रत करने लगे हैं पर यह उनका व्यक्तिगत फैसला है.
यह अजीब विडंबना है कि करवाचौथ जैसा घोर लैंगिक भेदभाव वाला कर्मकांड ऐसे दौर में ज्यादा प्रचलित हो रहा है जब लैंगिक समानता की दावेदारी भी बढ़ रही है. शिक्षा का स्तर तेजी से बढ़ने और लिंगभेद के प्रति सचेत होने के बावजूद भी मांएं, बेटों और पतियों के लिए व्रत करने से नहीं चूकतीं. हद तो यह है कि ऐसे व्रत न करने पर वे खुद को दोषी जैसा महसूस करती हैं. यदि उन्हें कभी व्रत न करने का अपराधबोध महसूस न हो तो हमारा समाज पूरी निष्ठा से उन्हें यह महसूस करवा देता है.
पति या बेटे के लिए व्रत न रखने पर महिलाओं को अपराधबोध महसूस करवाने में समाज अकेला नहीं है, उसका साथ देने के लिए बाजार भी है. बाजार के पास सच में कोई अमोघ शस्त्र है, जिससे वह हर किसी की सोचने-समझने की शक्ति खत्म कर देता है. वरना क्या कारण है कि अपनी पहचान और समानता के हक के लिए इतनी संवेदनशील होने के बाद भी पढ़ी-लिखी लड़कियों की नई पीढ़ी, इस लिंगभेदी कर्मकांड को छोड़ने के बजाय और ज्यादा जोश से अपना रही है? नई पीढ़ी की महिलाओं से अक्सर सुनने को मिलता है - ‘इस व्रत को करके हमें भीतर से बहुत अच्छा लगता है, या शांति मिलती है या ख़ुशी होती है.’ पुरुषों के सामान हकों के लिए संघर्ष करने वाली लड़कियों/महिलाओं का तो बेटों और पतियों के नाम पर किये जाने वाले व्रतों के बारे में सुनकर ही खून खौलना चाहिए था, क्योंकि ऐसे तमाम व्रत पुरुषों को स्त्री से श्रेष्ठ, ज्यादा कीमती और ज्यादा जरूरी ठहराते हैं!
हिंदू धर्म में सिर्फ बेटों और पतियों के लिए ही व्रत का प्रावधान है. बेटियों, मांओं और पत्नियों के लिए नहीं. यह सीधे-सीधे लिंगभेदी परंपरा है जिसे धर्म पोषित करता है
हिंदू धर्म में सिर्फ बेटों और पतियों के लिए ही व्रत का प्रावधान है. बेटियों, मांओं और पत्नियों के लिए नहीं. यह सीधे-सीधे लिंगभेदी परंपरा है जिसे धर्म पोषित करता है. क्या एक परिवार के लिए सिर्फ उसके पुरुषों का अच्छा स्वास्थ्य और लंबा जीवन ही महत्वपूर्ण है? क्या परिवार के लिए दिन-रात खटने वाली औरतों के लिए अच्छा स्वास्थ्य और लंबी उम्र महत्वहीन है?
एक यही दिन है जब खांटी से खांटी पति भी अपनी मर्दानगी को थोड़ी देर के लिए दबाकर, अपनी पत्नी के लिए ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील, सहायक, विनम्र, और हंसमुख बन जाते हैं. सिर्फ इसी दिन क्यों? क्या सालभर उन्हें अपनी पत्नियों का उनके लिए किया गया अंतहीन श्रम, खटना, सेवा और लगाव नहीं दिखता? पत्नियों के खाना-पानी छोड़े बिना वे उनके प्रति ज्यादा संवेदनशील क्यों नहीं रह सकते?
यहां सवाल पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों पर भी उठने चाहिए. ज्यादातर मामलों में पत्नियों के लिए भी यह एक तरह से खुद को पतिव्रता सिद्ध करने का मौका होता है. यह पतिव्रता होने का प्रमाणपत्र है जिसे पत्नियां खुशी-खुशी साल-दर-साल ‘रिन्यू’ कराना चाहती हैं और जिसे पति बेहद खुशी और फख्र से जारी करते हैं.
जीवन का अंतिम सत्य तो यही है कि स्त्री-पुरुष अपने सहयोगी रूप में ही एक-दूसरे के साथ श्रेष्ठ जीवन जी सकते हैं. व्यवहार में आसानी से देखा जा सकता है कि कई बच्चों की मां, विधवा या परित्यक्ता या तलाकशुदा स्त्रियां अक्सर दूसरा विवाह नहीं करतीं. बच्चों की आर्थिक और पारिवारिक जिम्मेदारियां वे स्वयं उठा लेती हैं. शायद इसलिए कि इनमें से तकरीबन सभी पुरुषों की संवेदनहीनता की भुग्तभोगी होती हैं. वे दोबारा विवाह नहीं करना चाहतीं. इसके विपरीत विधुर या तलाकशुदा पति अक्सर ही बच्चों की देखभाल या मां-बाप की सेवा के नाम पर, जल्द से जल्द दूसरी शादी के लिए दौड़ते हैं. यानी स्त्री एक बार को नौकरी, घर व बच्चे अकेले संभाल लेती है, लेकिन पुरुष नौकरी के साथ-साथ घर व बच्चे संभालने की हिम्मत अक्सर ही नहीं कर पाते. इस हिसाब से तो पुरुषों को स्त्रियों की ज्यादा जरूरत है. लेकिन इसके बावजूद भी उन्हें कभी नहीं लगता कि अपनी पत्नियों या बेटियों के अच्छे स्वास्थ्य और लंबी उम्र की कामना के लिए निर्जल या सजल उपवास करना चाहिए.
स्त्री नौकरी, घर व बच्चे अकेले संभाल सकती है लेकिन पुरुष नौकरी के साथ-साथ घर व बच्चे संभालने की हिम्मत अक्सर ही नहीं कर पाते. इस हिसाब से तो पुरुषों को स्त्रियों की ज्यादा जरूरत है
इस मामले में भी पितृसत्ता ने बाजार की आक्रामकता को अपने हित में मोड़ लिया है. यह लिंगभेद को कायम रखने का ज्यादा असरदार तरीका है. तमाम अखबार, खबरिया चैनल, सब मिलकर करवाचौथ के व्रत को इस तरह से पेश करते हैं जैसे यह कोई राष्ट्रीय त्योहार है. देश तो छोड़िए, विदेश में रहने वाली भारतीय पत्नियां भी श्रद्धा से इस व्रत का पालन करती हैं. असल में उन्हें नहीं पता कि वे क्या कर रही हैं. वे स्वेच्छा से, खुशी-खुशी पुरुषों को अपने से ज्यादा अहम, जरूरी, महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ मान रही हैं. अब जिस स्त्री जाति को खुद का और अपनी बेटी का जीवन इतना कीमती नहीं लगता, कि वह उसकी लंबी आयु और अच्छे स्वास्थ्य के लिए व्रत करे, तो उसके लिए लिंगभेद का शिकार बने रहने की अलग से वजह खोजे जाने की जरूरत नहीं है.
जिस रूप में करवाचौथ हमारे यहां मनाया जा रहा है, उसमें तो यह सिर्फ और सिर्फ पुरुषों का त्योहार है, जिसमें स्त्रियां खुद को उनके लिए खटाती हैं, कष्ट देती हैं. हम ऐसे किसी एक नये करवाचौथ के इंतजार में हैं, जहां पुरुष स्वेछा से अपनी पत्नियों के लिए व्रत करेंगे... या फिर पुरुष न सही, कम से कम स्त्रियां ही अपने खुद के स्वास्थ्य या लंबी उम्र की कामना कर लें.
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