बिहार चुनाव में इस बार महिलाओं ने रिकॉर्ड-तोड़ हिस्सा लिया लेकिन प्रदेश चलाने में महिलाओं की भूमिका वैसी ही न के बराबर रहने वाली है जैसी अब तक रही है
साल था 1996. 11 जुलाई को भोजपुर के बथानी टोला में इक्कीस दलितों को सिर्फ़ इसलिए काट डाला गया था क्योंकि उन्होंने मालिकों का खेत जोतने और अनाज उपजाने के एवज़ में अपनी मज़दूरी बढ़ाने की मांग की थी. जिन गर्दनों पर तलवारें चलीं, उनमें से सिर्फ़ एक पुरुष मज़दूर की थी. बाकी ग्यारह औरतें थीं, छह बच्चे थे और तीन तो ख़ैर नवजात थे.साल 1996 का वो जुलाई का महीना मेरे ज़ेहन में सिर्फ़ इसी एक घटना की वजह से टिका हुआ नहीं है. उस महीने एक और बड़ा हादसा हुआ था. मैं घर की दहलीज़ लांघकर पढ़ने के लिए दिल्ली आने वाली परिवार की पहली क्रांतिकारी लड़की करार दी गई. दोनों बड़े हादसों के बीच की विडंबना और भी बड़ी है. अख़बार जिस उच्च जाति के निर्मम हत्यारों की रणवीर सेना की नृशंसता से रंगा पड़ा था, उसी उच्च जाति में पैदा हुई लड़की होना, मेरे लिए कई पूर्वजन्मों के कर्मों की सज़ा से कम नहीं था.
मिलते ही मेरी सहेली की मां ने घर के भीतर पहला सवाल यह पूछा था कि मेरी जाति क्या है. जब मेरी सहेली ने कहा, 'भूमिहार' तो उनका जवाब था, 'लेकिन भूमिहार लड़कियां तो सुंदर होती हैं
एक बार अपनी बचपन की एक सहेली के घर पहली बार गई थी मैं. शायद दुर्गा पूजा घूमने के दौरान. जिस सोफे पर एकदम साधारण कदकाठी के, कमज़ोर-से दिखनेवाले सिन्हा अंकल बैठकर समस्तीपुर से आडवाणी की गिरफ्तारी के ख़िलाफ़ नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए लालू यादव के नाम का मर्सिया पढ़ रहे थे, उस सोफे के पीछे एक वॉल-साइज़ तस्वीर लगी थी - उस राम मंदिर की, जिसकी परिकल्पना के दम पर बीजेपी ने अपना मूल वोट बैंक तैयार किया.
हालांकि वो घटना मुझे इसलिए याद है क्योंकि मुझसे मिलते ही मेरी सहेली की मां ने घर के भीतर पहला सवाल यह पूछा था कि मेरी जाति क्या है. जब मेरी सहेली ने कहा, 'भूमिहार' तो उनका जवाब था, 'लेकिन भूमिहार लड़कियां तो सुंदर होती हैं!' मैं घर रोती हुई लौटी थी. कौन सी बात ज़्यादा चुभी थी मालूम नहीं - मेरी सबसे प्यारी सहेली का मेरी जाति से बाहर के दुख, या जिस जाति की थी उस जाति के सौन्दर्य के पैमाने पर पूरी तरह खरा न उतर पाने की निराशा!
अपने बचपन का बिहार सिर्फ़ गांवों और गांवों के आंगनों में सिमटा हुआ याद है. वह अविभाजित बिहार शाम ढलते ही घरों में लौट जाया करता था. लड़कियां स्कूल और कॉलेज तो जाती थीं, लेकिन वही जिनकी दहलीज़ें थोड़ी-बहुत खुल जाया करती थीं किसी तरह. परिवार के जो हिस्से शहरों में बसने लगे थे, उनका क्षितिज फैलने लगा था. हालांकि शहरों में भी कॉलोनियां और दोस्तियां तक जाति के आधार पर बंटी होती थीं.
जिस अविभाजित बिहार की शीत राजधानी रांची में मैं बड़ी हुई वहां मुसलमान और ईसाई मोहल्लों के साथ-साथ यादव टोला, बंगाली टोला, रिफ्यूजी कॉलोनी, कायस्थ टोला और मैथिली गलियां थीं. हालांकि खतियान में ये नाम दर्ज नहीं थे, लेकिन मोहल्लों की पहचान लोगों के दिमाग़ में इसी नाम से होती थी. गंगा के इस पार के सैटेलाइट शहरों और उपनगरों में तो फिर भी एक किस्म का कॉस्मोपॉलिटन कल्चर था, गंगा के उस पार जाते ही रंग, रूप, नाक-नक्श, बात-व्यवहार - सब पहचानें जाति के खांचे में बंट जाती थीं. मोहल्लों में जातियों और उपजातियों के गैंग और उनका दबदबा बंटा हुआ था. यही हाल सरकारी नौकरियों, अस्पतालों और स्कूलों का था. किसी एक डॉक्टर पर भरोसा इसलिए ज़्यादा होता था क्योंकि वो 'अपनी जाति' का था.
बिहार से बाहर हम जिस उन्मुक्तता का जश्न मनाते रहे, बिहार लौटकर उस उन्मुक्तता की भीगी बिल्लियां अपनी-अपनी दादी-नानियों के पुश्तैनी पलंग के नीचे ठंडी आहें भरती रहीं.
जिस दिल्ली ने मुझे और मेरी जैसी अलग-अलग जातियों से आई हजारों लड़कियों को उन्मुक्तता दी, खुलकर सांस लेने की आज़ादी दी, वह दिलरुबा दिल्ली भी हमें अपने बिहारी अस्तित्व से पूरी तरह जुदा नहीं कर सकी. दिल्ली में रहनेवाली हम बिहारनें बेशक शॉर्ट्स पहनने वाली, सड़कों पर आवारा घूमने वाली, सिगरेट के कश खींचने वाली, दूसरी जातियों के बॉयफ्रेंड के साथ रातें गुज़ारने वाली, एक अदद-सी नौकरी का ख़्वाब देखने वाली बेबाक लड़कियां थीं, लेकिन बिहार लौटते ही हमारी भावी किस्मत की ढाक पर सिर्फ़ तीन पात दिखाई देते थे - एक प्रोफेशनल डिग्री, किसी ढंग की जगह पर नौकरी और सजातीय विवाह.
बिहार से बाहर हम जिस उन्मुक्तता का जश्न मनाते रहे, बिहार लौटकर उस उन्मुक्तता की भीगी बिल्लियां अपनी-अपनी दादी-नानियों के पुश्तैनी पलंग के नीचे ठंडी आहें भरती रहीं. हम पूरी दिल्ली-मुंबई-पूना-बैंगलोर नंगे पांव धांग आने के बाद पटना स्टेशन या एयरपोर्ट पर उतरते ही अपनी पिता या भाई की परछाइयां तलाश करने लगतीं ताकि उनके साथ 'सुरक्षित' घर पहुंच सकें. घर लौटते ही आंगन की घुटन ख़ामोशी से इसलिए स्वीकार कर ली जाती थी क्योंकि वह बाहर निकलकर घूरती आंखों के कांटे अपने पूरे शरीर पर झेलने की तकलीफ़ से कहीं आसान था. अब लगता है कि जो लड़कियां बाहर निकल गईं, वे ज़्यादा कमजोर निकलीं. जो वहां टिके रहने की मजबूरी में पलती-बढ़ती रहीं, उनका डिफेंस मेकैनिज़्म हमसे कहीं ज़्यादा कारगर रहा होगा.
एक औरत के लिए जाति क्या होती है? उसकी पहचान का कितना बड़ा हिस्सा जातिगत होता है? क्या जातियों का कारोबार भी अन्य सभी सामाजिक व्यवस्थाओं की तरह पित्तृसत्तामक नहीं है? बथानी टोला में एक पुरुष मरा, लेकिन कटनेवाली ग्यारह औरतें थीं. लक्ष्मणपुर बाथे में भी कुल 58 मरने वालों में 27 औरतें और 16 बच्चे थे. लेकिन हथियार उठाने वालों में औरतें नहीं थीं, इसलिए क्योंकि बिहार में अगड़ी जाति की औरतें हथियार नहीं उठाया करतीं. इसलिए क्योंकि जाति से जुड़ी पहचान में उनकी भूमिका दहलीज़ के भीतर व्रत-त्यौहार, बरही-बरखी, जनेऊ-श्राद्ध और शादी-ब्याह के कर्मकांड निभाने के बाद ख़त्म हो जाती है. इन औरतों के हिस्से में दो किस्मों का जातिगत विभाजन और पक्षपात आता है - पहला औरत होने की वजह से पैदा होता है, और दूसरा अपनी अगड़ी जाति के होने के बोझ से आता है.
इन औरतों के हिस्से में दो किस्मों का जातिगत विभाजन और पक्षपात आता है - पहला औरत होने की वजह से पैदा होता है, और दूसरा अपनी अगड़ी जाति के होने के बोझ से आता है.
1996 में मैं पहली बार छुट्टियों के बाद अकेली दिल्ली लौट रही थी. तब अकेली का मतलब निपट अकेली नहीं होता था. अकेली का मतलब होता था अपनी ही जैसी बाकी 'अकेली' लड़कियों के साथ लौटना. हम पांच लड़कियां रांची से आ रही थीं, पुरुषोत्तम एक्सप्रेस से. गया से पूरी ट्रेन में भीड़ का एक हुजूम चढ़ पड़ा था. हज़ारों-हज़ारों लोग. इतने ही लोग कि हम पांचों को सिमटकर ऊपर की सीट पर जा बैठना पड़ा था. गया से दिल्ली का सफ़र हम पांचों अकेली लड़कियों ने वैसे ही तय किया था - बिना कुछ खाए-पिए, बाथरूम गए, सीट पर किसी तरह अंटी पड़ी लड़कियां.
भीड़ एक ख़ास जाति के बड़े नेता की रैली के लिए दिल्ली की ओर कूच कर रही थी. रैली, ज़ाहिर है, उनकी जातिगत पहचान की लड़ाई का एक हिस्सा थी. हालांकि भीड़ की छेड़खानी झेल रही बर्थ पर अंटी पड़ी हम लड़कियों की जाति सिर्फ़ एक थी - लड़की. इसके अलावा हम क्या थे, किस जाति के, किस पार्टी, किस नेता, किस विचारधारा के समर्थक थे - इसका कोई मतलब नहीं था. धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि जातिगत आरक्षण को अपना वोटबैंक बनाने वालीं, एक-दूसरे से लड़ने-भिड़ने वालीं राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के मामले में एक-सी राय रखती हैं – बेहद सामंतवादी राय.
1996 से लेकर अब उन्नीस साल हो गए. बिहार में कुर्सी को लेकर कई म्यूज़िकल चेयर हुए हैं इस बीच. राज्य में सांप्रदायिक दंगे न के बराबर हुए हैं, लेकिन जातीय दंगों और टकरावों का ज़ख़्म इतना गहरा है कि उसकी टीस की याद दिलाकर अभी भी इतिहास का रुख़ मोड़ा जा सकता है. यह भी सच है कि इन उन्नीस सालों में हालात भी बहुत बदले हैं. किसी भी हाइवे पर चलते हुए अपनी ओढ़नियां नफ़ासत से अपने बगल में बांधे, या फिर जींस टॉप में साइकिल चलाती शाम ढले ट्यूशन पढ़ने जाती लड़कियों का लहराता हुआ रेला बगल से गुज़र जाता है. गांवों की सरहदों तक, गांवों के भीतर तक पक्की सड़कें पहुंच चुकी हैं. हाथ-हाथ में मोबाइल है. वी-मार्ट जैसे मेगास्टोर और वास्तु-विहार जैसे अपार्टमेंट लिविंग का कल्चर छोटे-छोटे शहरों का हिस्सा बन चुका है. पूर्णिया और दरभंगा जैसे शहरों को देश के हवाई नक्शे पर स्थापित किए जाने की योजना है. अगर आम्रपाली और लिच्छवी में ठुंसे हुए बिहारी मजदूरी के लिए राजस्थान, पंजाब और गुजरात की ओर जा रहे हैं तो उतनी ही तेजी से पिछले कुछ सालों में प्राइवेट आईटीआई, नर्सिंग स्कूल और इंजीनियरिंग कॉलेज भी खुले हैं.
इस बार भी चुनाव के नतीजों से साबित हो गया है कि बिहार की किस्मत जातियां ही तय करती हैं लेकिन इसमें सीधे तौर पर 'औरत' जाति की भूमिका नगण्य रखी जाती है
लेकिन इस बार भी चुनाव के नतीजों से साबित हो गया है कि बिहार की किस्मत जातियां ही तय करती हैं लेकिन इसमें सीधे तौर पर 'औरत' जाति की भूमिका नगण्य रखी जाती है. महिलाओं के जिस वोट बैंक पर नीतीश ने इतनी बड़ी जीत दर्ज की है उसका प्रतिनिधित्व प्रदेश में बेहद सिमटा हुआ है - 272 सीटों पर होंगी सिर्फ 28 औरतें. मैग्नीफ़ाइंग ग्लास का सहारा लेकर और भी करीब से देखा जाए तो अगड़ी जाति की औरतों की हिस्सेदारी सत्ता में न के बराबर होगी.
मेरे जैसी लाखों पढ़ी-लिखी नॉन-रेज़िडेंट, काबिल और मुखर औरतों के लिए बिहार अभी भी सिर्फ़ छठ है, ठेकुआ है, पीला सिंदूर है, शारदा सिन्हा का विदाई-गीत है. बिहार घर है, ज़मीन-जायदाद है, मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू भर है. बिहार नोस्टालजिया है, मन में पड़ी रह गई कोई गांठ है. बिहार जाने कब वह ऐतिहासिक पिच बनेगा जहां औरतें राजनीति का खेल फ्रंट-फुट पर आकर कभी खेलना चाहेंगी! और जिस दिन ऐसा होगा, जाति की असली दीवारें भी तभी गिरेंगी.