कई लोगों का मानना है कि पुरुषों से जुड़े कई मुद्दे हैं जिनकी या तो लोगों को जानकारी नहीं है या जिन्हें अनदेखा किया जा रहा है. इस वजह से मौजूदा समाज पुरुषों के प्रति बेहद असंवेदनशील हो गया है.
महिला सशक्तिकरण की बहस से ठीक उलट 'पुरुष सशक्तिकरण' भी कई लोगों के लिए एक गंभीर मुद्दा है. इन लोगों का मानना है कि मौजूदा समाज में महिलाओं का नहीं बल्कि पुरुषों का ज्यादा शोषण हो रहा है. 'सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन' (एसआईएफएफ) नाम की एक संस्था पिछले कई सालों से इस मुद्दे पर काम कर रही और पुरुष अधिकारों के प्रति लोगों को जागरूक कर रही है. इस संस्था के अनुसार आज न्याय व्यवस्था से लेकर लोगों का सामाजिक नजरिया तक 'पुरुष विरोधी' हो चुका है जिसे बदलना बेहद जरूरी है. पुरुष अधिकारों के प्रति लोगों को जागरूक करने वाली यही वह संस्था भी है जिसने भारत में भी 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' मनाने की शुरुआत की थी.
19 नवंबर को दुनिया के कई देशों में 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' मनाया जाता है. भारत में एसआईएफएफ ने 2007 से इसकी शुरुआत की थी. इसके बाद से हर साल देशभर के कई शहरों में पुरुष दिवस मनाया जाने लगा. इस साल 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' मनाने के लिए एसआईएफएफ ने कई शहरों में बाइक और साइकिल रैलियों के जरिये जागरूकता अभियान चलाने का फैसला किया है. संस्था के अनुसार इस दिन उत्सव मनाने का उद्देश्य पुरुषों के उस योगदान को पहचान दिलाना है, जो वे समाज के लिए करते आए हैं. एसआईएफएफ का मानना है कि एक पुरुष अपने परिवार के लिए जितने भी त्याग करता है उन्हें कभी मान्यता नहीं मिलती और न ही समाज में पुरुषों को होने वाली समस्याओं को गंभीरता से समझा जाता है. पुरुष दिवस के दिन इन मुद्दों पर चर्चा करना भी एसआईएफएफ के उद्देश्यों में शामिल है.
एसआईएफएफ के अनुसार मौजूदा समाज में पुरुषों से जुड़े कई ऐसे मुद्दे हैं जिनकी लोगों को या तो जानकारी ही नहीं है या जिन्हें अनदेखा किया जा रहा है. इस वजह से मौजूदा समाज पुरुषों के प्रति बेहद असंवेदनशील हो गया है. संस्था के अनुसार पुरुषों को होने वाली मुख्य समस्यायों में से कुछ इस प्रकार हैं: 'फैमिली कोर्ट में पुरुषों को भेदभाव का शिकार होना पड़ता है; तलाक के 90 प्रतिशत मामलों में बच्चे पुरुषों को नहीं बल्कि महिलाओं को सौंप दिए जाते हैं; सरकार या न्यायालयों ने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनाई है जिससे शादीशुदा पुरुषों को आत्महत्या करने से बचाया जा सके; यदि कोई महिला किसी पुरुष से दुर्व्यवहार करे तो भी समाज उस महिला को दंडित नहीं करता; समाज और परिवार के लिए पुरुषों द्वारा किये जाने वाले त्याग को कभी नहीं समझा जाता और एक मर्द की जिम्मेदारी मान लिया जाता है; कोई सरकारी तंत्र नहीं है जिससे पुरुषों के खिलाफ होने वाले अपराधों के आंकड़े जुटाए जा सकें.'
एसआईएफएफ का यह भी मानना है कि पिछले एक दशक से पुरुष मामलों के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है. 'नो शेव नवंबर' जैसे अभियान में अब कई देशों के लोग हिस्सा के रहे हैं. यह पुरुषों को होने वाले 'प्रोस्टेट कैंसर' के प्रति लोगों को जागरूक करने का एक अभियान है जिसमें शामिल होने वाले पुरुष नवंबर के पूरे महीने अपनी मूछें और दाढ़ी नहीं कटवाते. इसके अलावा ब्रिटेन की संसद में भी इस 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' के दिन पुरुषों से जुड़े मामलों पर विशेष चर्चा का आयोजन किया गया है. इस चर्चा में 'पुरुषों की बढ़ती आत्महत्या दर' और 'महिलाओं की तुलना में पुरुषों की कम जीवन अवधि' जैसे मुद्दे शामिल किये गए हैं.
एसआईएफएफ के अध्यक्ष राजेश वखारिया कहते हैं, 'परिवार की जरूरतों और उम्मीदों का बोझ संभालते हुए और समाज के प्रति अपने दायित्वों को निभाते हुए पुरुष अपना जीवन जीना ही भूल जाते हैं. हम अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस का इस्तेमाल एक ऐसे मंच के तौर पर करना चाहते हैं जहां पुरुषों के योगदान की सराहना हो और पुरुष गौरवान्वित महसूस कर सकें.' राजेश वखारिया और उनकी संस्था के अलवा भी कई लोग 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' को उसी तरह से मनाने की बात करते हैं जैसे अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है. लेकिन एसआईएफएफ की अन्य बातों से कम ही लोग सहमत नज़र आते हैं और मौजूदा समाज को 'पुरुष-प्रधान समाज' के तौर पर ही देखते हैं.
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इस लिंक या mailus@satyagrah.com के जरिये भेजें.महिला सशक्तिकरण की बहस से ठीक उलट 'पुरुष सशक्तिकरण' भी कई लोगों के लिए एक गंभीर मुद्दा है. इन लोगों का मानना है कि मौजूदा समाज में महिलाओं का नहीं बल्कि पुरुषों का ज्यादा शोषण हो रहा है. 'सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन' (एसआईएफएफ) नाम की एक संस्था पिछले कई सालों से इस मुद्दे पर काम कर रही और पुरुष अधिकारों के प्रति लोगों को जागरूक कर रही है. इस संस्था के अनुसार आज न्याय व्यवस्था से लेकर लोगों का सामाजिक नजरिया तक 'पुरुष विरोधी' हो चुका है जिसे बदलना बेहद जरूरी है. पुरुष अधिकारों के प्रति लोगों को जागरूक करने वाली यही वह संस्था भी है जिसने भारत में भी 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' मनाने की शुरुआत की थी.
19 नवंबर को दुनिया के कई देशों में 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' मनाया जाता है. भारत में एसआईएफएफ ने 2007 से इसकी शुरुआत की थी. इसके बाद से हर साल देशभर के कई शहरों में पुरुष दिवस मनाया जाने लगा. इस साल 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' मनाने के लिए एसआईएफएफ ने कई शहरों में बाइक और साइकिल रैलियों के जरिये जागरूकता अभियान चलाने का फैसला किया है. संस्था के अनुसार इस दिन उत्सव मनाने का उद्देश्य पुरुषों के उस योगदान को पहचान दिलाना है, जो वे समाज के लिए करते आए हैं. एसआईएफएफ का मानना है कि एक पुरुष अपने परिवार के लिए जितने भी त्याग करता है उन्हें कभी मान्यता नहीं मिलती और न ही समाज में पुरुषों को होने वाली समस्याओं को गंभीरता से समझा जाता है. पुरुष दिवस के दिन इन मुद्दों पर चर्चा करना भी एसआईएफएफ के उद्देश्यों में शामिल है.
एक पुरुष अपने परिवार के लिए जितने भी त्याग करता है उन्हें कभी मान्यता नहीं मिलती और न ही समाज में पुरुषों को होने वाली समस्याओं को गंभीरता से समझा जाता है.लैंगिक भेदभाव को एसआईएफएफ जैसे संगठन एक अलग ही नज़रिए से देखते हैं. संस्था का मानना है, 'जीवन के हर क्षेत्र में मर्दों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी मर्दानगी साबित करें. इसलिए समाज उनके प्रति बहुत ही कठोर होता है. महिलाओं को तो उनके गुण कुदरती तौर से मिल जाते हैं लेकिन पुरुष मर्दानगी लेकर पैदा नहीं होते, उन्हें समाज की नज़र में वह कमानी होती है. यह प्रक्रिया प्रतिस्पर्धा पैदा करती है और एक पुरुष अन्य पुरुषों को अपने प्रतिद्वंदी या दुश्मन के रूप में देखने लगता है, जिन्हें हराकर ही वह अपनी मर्दानगी साबित कर सकता है.'
एसआईएफएफ के अनुसार मौजूदा समाज में पुरुषों से जुड़े कई ऐसे मुद्दे हैं जिनकी लोगों को या तो जानकारी ही नहीं है या जिन्हें अनदेखा किया जा रहा है. इस वजह से मौजूदा समाज पुरुषों के प्रति बेहद असंवेदनशील हो गया है. संस्था के अनुसार पुरुषों को होने वाली मुख्य समस्यायों में से कुछ इस प्रकार हैं: 'फैमिली कोर्ट में पुरुषों को भेदभाव का शिकार होना पड़ता है; तलाक के 90 प्रतिशत मामलों में बच्चे पुरुषों को नहीं बल्कि महिलाओं को सौंप दिए जाते हैं; सरकार या न्यायालयों ने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनाई है जिससे शादीशुदा पुरुषों को आत्महत्या करने से बचाया जा सके; यदि कोई महिला किसी पुरुष से दुर्व्यवहार करे तो भी समाज उस महिला को दंडित नहीं करता; समाज और परिवार के लिए पुरुषों द्वारा किये जाने वाले त्याग को कभी नहीं समझा जाता और एक मर्द की जिम्मेदारी मान लिया जाता है; कोई सरकारी तंत्र नहीं है जिससे पुरुषों के खिलाफ होने वाले अपराधों के आंकड़े जुटाए जा सकें.'
एसआईएफएफ का यह भी मानना है कि पिछले एक दशक से पुरुष मामलों के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है. 'नो शेव नवंबर' जैसे अभियान में अब कई देशों के लोग हिस्सा के रहे हैं. यह पुरुषों को होने वाले 'प्रोस्टेट कैंसर' के प्रति लोगों को जागरूक करने का एक अभियान है जिसमें शामिल होने वाले पुरुष नवंबर के पूरे महीने अपनी मूछें और दाढ़ी नहीं कटवाते. इसके अलावा ब्रिटेन की संसद में भी इस 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' के दिन पुरुषों से जुड़े मामलों पर विशेष चर्चा का आयोजन किया गया है. इस चर्चा में 'पुरुषों की बढ़ती आत्महत्या दर' और 'महिलाओं की तुलना में पुरुषों की कम जीवन अवधि' जैसे मुद्दे शामिल किये गए हैं.
महिलाओं को तो उनके गुण कुदरती तौर से मिल जाते हैं लेकिन पुरुष मर्दानगी लेकर पैदा नहीं होते, उन्हें समाज की नज़र में वह कमानी होती है. यह प्रक्रिया प्रतिस्पर्धा पैदा करती हैएसआईएफएफ की कई बातों और उनके नज़रिए से लाखों लोग असहमत हो सकते हैं लेकिन वे हज़ारों लोग इस संस्था का हर कदम पर साथ जरूर देते हैं जो भारतीय दंड प्रक्रिया की धारा 498 ए का गलत शिकार हुए हैं. दहेज़ के मामलों में महिलाओं की रक्षा के लिए बनाई गई इस धारा का इतना दुरूपयोग हुआ है कि कई बार सर्वोच्च न्यायालय भी इस धारा पर लगाम कसने की बात कह चुका है. आज यदि गूगल पर '498 ए' सर्च किया जाए तो जो परिणाम सामने आते हैं, उनमें इस धारा के दुरूपयोग की चर्चा इसकी परिभाषा से भी पहले मिलती है. इस कानून के दुरूपयोग से पीड़ित हज़ारों लोगों के लिए एसआईएफएफ सहारा बनती रही है. इस संस्था के कई सदस्य ऐसे भी हैं जो स्वयं महिला कानूनों के दुरूपयोग का शिकार हुए हैं और उसके बाद ही पुरुष अधिकारों पर चर्चा की जरूरत महसूस करने लगे हैं.
एसआईएफएफ के अध्यक्ष राजेश वखारिया कहते हैं, 'परिवार की जरूरतों और उम्मीदों का बोझ संभालते हुए और समाज के प्रति अपने दायित्वों को निभाते हुए पुरुष अपना जीवन जीना ही भूल जाते हैं. हम अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस का इस्तेमाल एक ऐसे मंच के तौर पर करना चाहते हैं जहां पुरुषों के योगदान की सराहना हो और पुरुष गौरवान्वित महसूस कर सकें.' राजेश वखारिया और उनकी संस्था के अलवा भी कई लोग 'अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस' को उसी तरह से मनाने की बात करते हैं जैसे अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है. लेकिन एसआईएफएफ की अन्य बातों से कम ही लोग सहमत नज़र आते हैं और मौजूदा समाज को 'पुरुष-प्रधान समाज' के तौर पर ही देखते हैं.
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