बीती 10 नवंबर को अमृतसर के पास एक गांव में 'सरबत खालसा' का आयोजन हुआ जिसमें लाखों सिखों ने भाग लिया. 'सरबत खालसा' सिखों की सबसे बड़ी धार्मिक सभा को कहा जाता है. 1986 के बाद यह पहला मौका था जब सिख समुदाय को 'सरबत खालसा' बुलाने की जरूरत महसूस हुई. इस आयोजन में खालिस्तान के समर्थन में नारे लगाए जाने और खालिस्तान की मांग उठने की भी बातें सामने आईं. आयोजन के बाद पंजाब पुलिस ने लगभग उन सभी लोगों को गिरफ्तार कर लिया है जिन्होंने यह 'सरबत खालसा' आयोजित किया था या जो इसके मुख्य चेहरे थे. इन सभी लोगों पर देशद्रोह से सम्बंधित धाराओं के तहत मुक़दमे भी दर्ज किये गए हैं.
इस सरबत खालसा के मुख्य आयोजक शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के नेता सिमरनजीत सिंह मान थे. आयोजन के बाद उन्हें भी गिरफ्तार किया गया था लेकिन उच्च न्यायालय के एक आदेश के चलते वे तुरंत ही रिहा कर दिए गए. आईपीएस अधिकारी रहे मान ने 1984 में हुए 'सिख विरोधी दंगों' के चलते नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया था. उन पर इंदिरा गांधी की हत्या की साजिश में शामिल होने से लेकर देशद्रोह तक के कई मुक़दमे चल चुके हैं. 1984 में उन्हें भारत-नेपाल सीमा से गिरफ्तार किया गया था. इसके बाद वे पांच साल तक जेल में रहे. 1989 में वे पहली बार सांसद चुने गए और उनकी रिहाई के साथ ही तत्कालीन सरकार ने उन पर चल रहे तमाम मुकदमे भी वापस ले लिए.
आईपीएस अधिकारी रहे मान ने 1984 के 'सिख विरोधी दंगों' के चलते नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया था. उन पर इंदिरा गांधी की हत्या की साजिश में शामिल होने से लेकर देशद्रोह तक के मुक़दमे चल चुके हैं
दो बार सांसद रह चुके सिमरनजीत सिंह मान पृथक खालिस्तान की मांग के लिए भी जाने जाते हैं. पिछले काफी समय से उनका जनाधार लगातार कम हो रहा था, लेकिन 'सरबत खालसा' ने उन्हें एक बार फिर से चर्चा में ला दिया है. इस आयोजन और सिखों से जुड़े अन्य मामलों पर सिमरनजीत सिंह मान से एक बातचीत:
सरबत खालसा बुलाने का मुख्य उद्देश्य क्या था?
सिख धर्म को चलाने के लिए सियासत भी साथ-साथ चलती है और यदि इसमें कोई संकट आए तो 'सरबत खालसा' बुलाया जाता है. आज सियासत में ऐसा ही संकट है क्योंकि बादल का अकाली दल, भाजपा और आरएसएस के साथ मिल चुका है. उन्होंने सिखों पर जुल्म शुरू कर दिए हैं. हमारे तीन तख्तों के जत्थेदारों को बादल और भाजपा ने जेल में डाल दिया है. ये इसलिए हो सका क्योंकि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधन समिति (एसजीपीसी), जो सिखों की संसद है, उसे सर्वोच्च न्यायालय ने 2011 में सस्पेंड कर दिया और 2004 में चुने गए सदस्यों में से ही अध्यक्ष नियुक्त कर दिया. यह ऐसा है जैसे सर्वोच्च न्यायालय आज लोकसभा भंग कर दे और 2004 में हुए चुनावों के अनुसार मनमोहन सिंह को मोदी की जगह पर प्रधानमंत्री बना दे. आज एसजीपीसी की कार्यकारी समिति पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुकी है. वह सिख धर्म की मर्यादा का पालन नहीं कर रही. उनके जत्थेदार ने बाबा राम रहीम को (सिख गुरु गोविन्द सिंह की नक़ल करने के मामले में) माफ़ी देकर सिखों का अपमान किया है. इन्हीं कारणों के चलते 'सरबत खालसा' बुलाया गया.
आज़ादी के लिए तो हमारा केस कश्मीर से भी ज्यादा मजबूत है. कश्मीर के हिन्दू राजा ने 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन' पर दस्तखत किये थे. लेकिन सिखों ने संविधान को माना ही नहीं था.
'सरबत खालसा' में पारित हुए प्रस्तावों के जरिये अकाल तख़्त के मौजूदा जत्थेदार को बर्खास्त कर दिया गया था. लेकिन आधिकारिक तौर पर तो आज भी वे ही जत्थेदार बने हुए हैं. ऐसे में इस 'सरबत खालसा' और इसमें पारित हुए प्रस्तावों की क्या वैधता है?
'सरबत खालसा' के अगले ही दिन दीवाली थी. सिख धर्म में यह दिन 'बंदी छोड़' दिवस के रूप में मनाया जाता है और अकाल तख़्त का जत्थेदार इस दिन संगत (वहां मौजूद लोग) को संबोधित करता है. इस बार जब जत्थेदार गुरबचन सिंह संगत को संबोधित कर रहे थे तो संगत ने उनका बहिष्कार किया. कुछ देर बाद जब जत्थेदार ध्यान सिंह (सरबत खालसा में नियुक्त किए गए नए जत्थेदार) वहां पहुंचे और उन्होंने संगत को संबोधित किया तो संगत ने उनका स्वागत किया. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कौन असल जत्थेदार है और कौन सिर्फ नाम का जत्थेदार है.
आप पर आरोप हैं कि आपने कांग्रेस की मदद से सत्ताधारी अकाली दल को कमजोर करने के लिए 'सरबत खालसा' आयोजित करवाया था. साथ ही आप पर लोगों की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करके अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी करने के भी आरोप है.
'सरबत खालसा' में कांग्रेस ही नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी के लोग भी आए थे. स्वयं बादल के 25 एसजीपीसी सदस्य भी उसमें शामिल हुए थे. दरबार साहिब के सभी हाई प्रीस्ट भी वहां थे. वह किसी पार्टी की नहीं बल्कि सिख समुदाय की सभा थी. और जहां तक धार्मिक भावनाओं को इस्तेमाल करने का सवाल है तो मैं पहले भी बता चुका हूँ कि सिख धर्म में सियासत साथ-साथ ही चलती है. अकाल तख़्त साहिब या दरबार साहिब में आपको दो झंडे दिखाई देंगे. ये दो निशान साहिब हैं जिनमें एक धर्म का है और दूसरा सियासत का. धर्म का झंडा सियासत के झंडे से थोडा-सा ऊंचा होता है लेकिन दोनों साथ-साथ ही होते हैं.
यह बात भी सामने आई है कि 'सरबत खालसा' के आयोजन में खालिस्तान समर्थन के नारे लगाए गए. क्या यह बात सही है?
मेरे ख़याल से खालिस्तान के नारे तो वहां नहीं लगे, लेकिन जो प्रस्ताव वहां पारित किये गए उनमें खालिस्तान की मांग जरूर शामिल थी.
हम इस राष्ट्र को मानते ही नहीं. हम यहां के कानून का पालन सिर्फ इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हम बन्दूक नहीं उठाना चाहते. हम शांतिपूर्ण तरीके से ही अपनी मांग कर रहे हैं
खालिस्तान की मांग से आपका क्या मतलब है? जिस खालिस्तान की आप बात करते हैं उसका स्वरुप कैसा है?
खालिस्तान यानी भारत, पकिस्तान और चीन के बीच में एक स्वतंत्र 'बफर स्टेट.' 1947 में जब देश आज़ाद हुआ तो मुस्लिमों को पकिस्तान मिला और हिंदुओं को हिंदुस्तान. उस वक्त भी यह मांग थी कि हमें हमारा मुल्क मिले. लेकिन अंग्रेजों के साथ-साथ गांधी और नेहरु ने भी हमसे बेईमानी की. इसीलिए संविधान सभा में सिखों के प्रतिनिधि रहे भूपिंदर सिंह मान और हुकुम सिंह ने संविधान पर दस्तखत नहीं किये. आज़ादी के लिए तो हमारा केस कश्मीर से भी ज्यादा मजबूत है. कश्मीर के हिन्दू राजा ने 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन' पर दस्तखत किये थे. लेकिन सिखों ने संविधान को माना ही नहीं था. इसलिए खालिस्तान का आधार ज्यादा मजबूत है.
आपको नहीं लगता कि ऐसी मांग करना देश की अखंडता के खिलाफ है और देशद्रोह है?
मैंने बताया कि हम इस राष्ट्र को मानते ही नहीं. हमारे प्रतिनिधि ने कभी संविधान पर दस्तखत ही नहीं किये. हम यहां के कानून का पालन सिर्फ इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हम बन्दूक नहीं उठाना चाहते. हम शांतिपूर्ण तरीके से ही अपनी मांग कर रहे हैं.
खालिस्तान की मांग पर आज आपको कितना समर्थन मिलता है?
सरबत खालसा में हुई लाखों की भीड़ से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं.
मैं अहिंसक तरीके से अपनी लड़ाई लड़ना चाहता हूं. लेकिन मेरे बाद जो मेरी जगह आएगा, वह अपने तरीके से लड़ेगा. हो सकता है वह हिंसक हो
खालिस्तान की मांग के लिए जो काम आप कर रहे हैं, उसके लिए पैसा कहां से आता है? इस 'सरबत खालसा' के आयोजन में भी लाखों का खर्चा हुआ होगा. क्या विदेशों में रहने वाले प्रवासी सिख आपको वित्तीय मदद देते हैं?
हां. उन लोगों से हमें समर्थन और वित्तीय मदद भी मिलती है. लेकिन सच बताऊं तो इस बार हुए 'सरबत खालसा' में ज्यादा खर्चा नहीं हुआ. इससे ज्यादा खर्चा तो एक रैली के आयोजन में हो जाता है.
पंजाब के लाखों युवा भगत सिंह को अपना आदर्श मानते हैं. लेकिन आप उन्हें अपना आदर्श नहीं बल्कि एक आतंकवादी मानते हैं. आपके आदर्श कौन हैं?
संत जरनैल सिंह भिंडरावाले हमारे आदर्श हैं.
आपकी मांग खालिस्तान की है और आपके आदर्श भिंडरावाले हैं. तो क्या आपका रास्ता भी वही होगा जो भिंडरावाले का था?
नहीं. मैंने बताया था कि मैं अहिंसक तरीके से अपनी लड़ाई लड़ना चाहता हूं. लेकिन मेरे बाद जो मेरी जगह आएगा, वह अपने तरीके से लड़ेगा. हो सकता है वह हिंसक हो. गुरु गोविन्द सिंह जी ने कहा है कि जब हर विकल्प समाप्त हो जाए तो तलवार उठाना भी जायज़ और न्यायपूर्ण होता है. सिख धर्म में दोनों तरीकों को मान्यता मिलती है. इसलिए मेरे बाद जो सियासती जत्थेदार बनेगा वह अपने तरीके से लड़ेगा. मुख्य है खालिस्तान की लड़ाई को जारी रखना.