‘मैं सिर्फ हिंदुस्तान में चित्र बना सकती हूं. यूरोप, पिकासो, मैटिस और ब्रेक का है. हिंदुस्तान सिर्फ मेरे लिए है.’ कल्पना कीजिए यह कहते हुए कहने वाले के चेहरे पर कैसा आत्मविश्वास रहा होगा. 20-22 साल की लड़की जब पूरे जोश से यह कहे तो सुनने वाले को इसमें अहम की झलक दिख सकती है. लेकिन यह बात अपनी जगह पूरी सच थी और इसे बयान करने वाली थीं, अमृता शेरगिल. हां वही खूबसूरत अमृता, जिद्दी और जुनूनी अमृता, जो हमेशा वक्त से आगे रहने वाली थीं.
अमृता जब यह बात कह रही थीं तब सच में भारत और भारतीय महिलाओं को कला की उस नजर से देखने वाला उनके अलावा कोई नहीं था. यूं तो कला का जादू हमेशा अपने कलाकार पर भारी पड़ता है. लेकिन अमृता शेरगिल उन गिनीचुनी कलाकारों में शुमार की जा सकती हैं जो अपनी कला से कहीं ज्यादा जादू भरी थीं. उतनी ही जादुई उनकी छोटी-सी उमर की लंबी कहानी है.

भारत के लिए इतना समर्पण दिखाने वाली अमृता शेरगिल जन्म से उतनी भारतीय नहीं थीं. उन्होंने 30 जनवरी, 1913 को बुडापेस्ट (हंगरी) में पंजाबी सिख पिता और हंगेरियन मां की संतान के रूप में जन्म लिया था. पांच साल की उम्र आते-आते अमृता ने रंगों से रिश्ता जोड़ लिया. सन 1921 में जब वे आठ साल की बच्ची थीं, माता पिता के साथ पहली बार भारत आईं और फिर यहीं की होकर रह गईं. ऐसा नहीं है कि इसके बाद उन्हें विदेश जाने या वहां फिर बसने का मौका नहीं मिला. दो साल बाद ही यानी 1923 में उन्हें मां के साथ इटली भेज दिया गया. पेंटिंग में उनके रुझान को देखकर पिता ने उन्हें इसकी तालीम दिलवाने का निश्चय किया था सो वहां के प्रतिष्ठित कला स्कूल में दाखिला भी करा दिया गया. न वह स्कूल अमृता को रास आया न ही वह देश. वे इटली छोड़कर भारत लौट आईं. यह शायद अमृता की पहली जिद रही होगी जो उन्होंने पूरी करवाई.
बीसवीं सदी का तीसरा दशक चल रहा था. भारत में रह रहीं अमृता अब सोलह साल की हो चुकी थीं. अमृता एक बार फिर पेरिस सहित यूरोप के कई शहरों के सफर पर निकलीं. लेकिन यह उनकी सिर्फ एक कला यात्रा बनकर रह गई. भारत के अलावा किसी और देश में वह ताब न था जो अमृता जैसी शख्सियत को वहां थम जाने को मजबूर करता. सन 1934 में अपने कैनवास पर भारतीयता उकेरते हुए अमृता एक बार फिर भारत में थीं.
अमृता ने एक तरफ जहां बोझिल से भारतीय आम-जनजीवन को रंगों से जीवंत किया. वहीं पहली बार आम भारतीय महिलाओं को कैनवास पर लेकर आईं
20वीं शताब्दी की शुरुआत तक भी भारतीय स्त्रियां चारदीवारी के अंदर की रौनक समझी जाती थीं. पेशेवर औरतें या तो मजदूर या घरेलू नौकर हुआ करती थी (देश के एक बड़े हिस्से में क्रांतिकारी बदलाव तो अब तक नदारद है). ऐसे में अमृता का अपने काम के लिए किसी भी यूरोपीय देश की तुलना में भारत को महत्व देना उनकी ऊंची और अलग सोच को दिखाता है. जो उस समय किसी आम औरत की सोच नहीं हो सकती थी. उसकी तो बिल्कुल नहीं जिसकी पूरी परवरिश पश्चिमी तौर-तरीकों से हुई हो. यह किशोर हो चुकी अमृता की दूसरी जिद थी. इस दौरान अजंता की गुफाएं, दक्षिण भारत की संस्कृति, बनारस को कैनवास पर उतारते-उतारते अमृता अनजाने ही एक नए युग की शुरुआत कर चुकी थीं. क्लासिकल इंडियन आर्ट को मॉर्डन इंडियन आर्ट की दिशा देने का श्रेय अमृता शेरगिल को ही जाता है.
अमृता ने एक तरफ जहां बोझिल से भारतीय आम-जनजीवन को रंगों से जीवंत किया. वहीं पहली बार आम भारतीय महिलाओं को कैनवास पर लेकर आईं. 1939 में बनाए ‘रेस्टिंग (आराम) ’ ‘टू गर्ल (दो लड़कियां)’ तथा 1938 में बने ‘रेड वेरांदा (लाल बरामदा),’ ‘वुमन इन रेड (लाल कपड़े वाली औरत)’ चित्र जातीय व लैंगिक भेदभाव के चित्र हैं. कैनवास पर ये भारतीय महिलाएं यथार्थ के साथ अपनी सारी सुघड़ता, कामुकता और सारा सौंदर्य लेकर आईं. अमृता की दार्शनिक नजर का ही कमाल था कि पतली कमर और बड़े वक्षों वाली ये निर्वस्त्र महिलाएं कभी फूहड़ नहीं लगीं.
नेहरू अमृता की खूबसूरती से खासे ‘प्रभावित’ थे और कहा जाता है कि एक बार उन्होंने अमृता से अपनी तस्वीर बनाने का आग्रह भी किया लेकिन वे कभी उनके कैनवास पर जगह नहीं पा सके
अमृता के पहले राजा रवि वर्मा जिन महिलाओं को चित्रित कर चुके थे, वे देवी या फिर राजकुमारियां हुआ करती थीं. अपने चित्रों में कुछ कामुक अवस्था में महिलाओं की जो छवि राजा रवि वर्मा ने दिखाई थी उसके लिए उन्हें सामाजिक बहिष्कार तक झेलना पड़ गया था. सहज भारतीय सौंदर्य रचने के मामले में अमृता, राजा रवि वर्मा से आगे मानी जा सकती हैं. निर्धारित मानदंडों और अदृश्य बेड़ियों को तोड़ने की एक तड़प अमृता में बचपन से थी. भारतीय स्त्री को रचते हुए यह कितनी मुखर हो जाती थी, उनके चित्रों को देखकर महसूस किया जा सकता है. उन्होंने स्त्री को ऐसा भी रचा जैसी वो उस समय थी और वैसा भी जैसा अमृता देखना चाहती थीं - निर्बाध, स्वतंत्र.
सन 1937 में लाहौर में एक कला प्रदर्शनी आयोजित हुई थी. यहां अमृता शेरगिल की 33 कलाकृतियां सम्मिलित हुईं. कला प्रदर्शनियों के बारे में ऐसा कम ही होता है लेकिन इस आयोजन को नियत समयावधि के बाद और कुछ दिनों के लिए बढ़ाना पड़ा. दरअसल तब तक कला-पारखियों पर अमृता के चित्रों और आम आगंतुकों पर उनकी खूबसूरती का जादू चढ़ चुका था और वे उन्हें देखने बार-बार आ रहे थे. ‘द ब्राईड्स टॉयलट (दुल्हन का श्रृंगार कक्ष),’ ‘ब्रह्मचारी’, ‘विलेजर्स इन विंटर (जाड़ों में गांववाले),’ ‘मदर इंडिया (भारत माता)’ सरीखी पेंटिंग इस प्रदर्शनी में शामिल थीं. कला विशेषज्ञों के अनुसार इन चित्रों में अमृता का व्यक्तित्व इतना रहस्यमयी था जिसे ‘राजसी वस्त्रों में ढका दुख’ कहा जा सकता था.
यही अमृता के जीवन का विरोधाभास था. राजसी परिवार में जन्मी अमृता जिन्हें शायद ही कभी किसी चीज की कमी रही हो, के चित्र शिकायती ज्यादा नजर आते हैं. उनकी रचनाओं में बड़ी-बड़ी दुख भरी, उदास आंखें हैं, पतली-नुकीली उंगलियां हैं जो चित्रकार की विषादपूर्ण मनोदशा बताती हैं. खाली सीढ़ियां चित्रित की गई हैं जो जिंदगी से निराशा और शिकायतें दिखाती हैं. यह अमृता की जिंदगी का वह पहलू है जिसके बारे में कम ही लिखा-पढ़ा गया है. अमृता के जीवन के जिस दौर की ये तस्वीरें हैं उस समय तक उन्हें अकेलेपन का डर सताने लगा था. यह डर ही इकलौती वजह थी कि उन्होंने (1938 में) अपने हंगेरियन कजिन डॉ. विक्टर ईगन से शादी कर ली. हालांकि इस शादी के पहले उनके प्रेम के जैसे किस्से कहे जाते थे, शादी के बाद भी सुनने को मिलते रहे.
अमृता की कला का एक विरोधाभास यह था कि राजसी परिवार में जन्मी होने की वजह से उन्हें जीवन में कभी कोई कमी नहीं रही लेकिन उनके चित्र शिकायती ज्यादा नजर आते हैं
अपनी शर्तों पर जीने वाली अमृता की खासबात थी कि उनसे हर कोई प्रभावित हो जाता था. लेकिन उन पर किसी के आभामंडल की छाया इतनी जल्दी असर नहीं डालती थी. जहां उनके पति हंगरी के होने के कारण ब्रिटेन के खुले विरोधी थे. वहीं रौबदार व्यक्तित्व वाले पिता ब्रिटिश हुकूमत के करीबी थे. लेकिन इन सबके उलट अमृता हमेशा कांग्रेस की समर्थक रहीं. उस समय कांग्रेस की छवि गरीबों की हमदर्द पार्टी की थी और पार्टी का नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू कर रहे थे.
उस दौर के एक वाकया काफी चर्चित है. कहा जाता है कि नेहरू अमृता के खूबसूरती से खासे ‘प्रभावित’ थे और एक बार उन्होंने अमृता से अपनी तस्वीर बनाने का आग्रह भी किया था. लेकिन अपने आप में आकर्षक छवि वाले नेहरु कभी अमृता को इतना प्रभावित नहीं कर पाए कि वे उन्हें अपने कैनवास पर जगह दे देतीं. यह भी अमृता के दृढ स्वभाव को बताता है क्योंकि इसके पहले अपने तमाम जाने-अनजाने प्रेम संबंधों को और प्रेमी-प्रेमिकाओं को अमृता कैनवास पर उतारती आई थीं.
अमृता कलाकार थीं तो संवेदनशील उन्हें होना ही था लेकिन हर जज्बे में उतनी ही प्रवीणता विरले ही देखने को मिलती है. जितनी खूबसूरत उतनी दृढ, जितनी भावुक उतनी ही व्यवहारिक, जितनी प्रेमल उतनी ही उदासीन, ऐसा संयोजन दुबारा नहीं बना. फिर भी इन सबके साथ एक चीज और मिल जाती है जो उन्हें सबसे अलग बनाती है, उनकी जिद. इस जिद ने ही अमृता से जुड़े रहस्यों को और गहरा कर दिया था. रहस्य चाहे उनके जीवन के हों, असमय हुई मृत्यु के या कैनवास पर उतारे रंगों के. अमृता ने रंगों से भरे अपने छोटे से जीवन में कला जगत वो दे दिया जिसके आधार पूरब और पश्चिम की कला सालों-साल परखी जा सकती है. इसलिए जो अमृता शेरगिल अपने समय में बे-मोल थीं, अब बेशकीमती हैं.
फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब पर हमसे जुड़ें | सत्याग्रह एप डाउनलोड करें
Respond to this article with a post
Share your perspective on this article with a post on ScrollStack, and send it to your followers.