भीमसेन जोशी का परिचय एक वाक्य में ऐसे भी समेटा जा सकता है कि वे भारत की मिट्टी के मिजाज का मूर्त रूप थे. उनकी बुनियाद भले ही किराना घराने की थी लेकिन, उस बुनियाद के ऊपर उन्होंने जो इमारत बनाई उसके ईंट-गारे में और भी बहुत कुछ था. श्रोताओं को उनके गायन में दूसरे घरानों से लेकर लोक, भक्ति और कर्नाटक संगीत तक तमाम रंगों का मनोहारी मेल सुनाई देता था. भीमसेन जोशी खुद भी कहते थे कि उन्हें जो-जो पसंद आया उन्होंने सुना, सीखा और उसे अपनी धारा में मिलाने की कोशिश की. इसका नतीजा एक ऐसा विराट गायन था जिसमें पूरे भारत की गूंज थी.

भीमसेन जोशी का जन्म कर्नाटक के धारवाड़ में हुआ था. इस इलाके को भारतीय शास्त्रीय संगीत की राजधानी कहा जाए तो गलत नहीं होगा. उस्ताद अब्दुल करीम खां, सवाई गंधर्व, कुमार गंधर्व, मल्लिकार्जुन मंसूर और गंगूबाई हंगल जैसे कितने ही दिग्गजों का ताल्लुक यहां की मिट्टी से जुड़ता है. भीमसेन जोशी के बारे में अक्सर कहा जाता है कि गायन की तरफ उनका झुकाव उस दिन हुआ जब उन्होंने किराना घराने की शुरुआत करने वाले उस्ताद अब्दुल करीम खां का एक रिकॉर्ड सुना. लेकिन एक साक्षात्कार में खुद उनका कहना था कि इसकी वजह उनकी मां थीं जो संध्या की आरती के वक्त अपनी मीठी आवाज में पुरंदरदास के भजन गाया करती थीं.
संगीत की तरफ भीमसेन जोशी का झुकाव शुरू हुआ तो फिर इसे रोकना मुश्किल हो गया. वे किसी गुरू के पास जाना चाहते थे. लेकिन उनके शिक्षक पिता का मानना था कि पहले उन्हें कम से कम ग्रेजुएशन कर लेनी चाहिए. बात दोनों तरफ से अड़ी रही और 11 साल तक आते-आते संगीत के प्रति भीमसेन जोशी का जुनून इस हद तक बढ़ गया कि वे घर से भाग गए.
इसके बाद उनके छह-सात महीने ट्रेनों में हिंदुस्तान की यात्रा करते हुए बीते. पैसे थे नहीं तो यह घूमना गले के बूते हुआ. टिकट चेकर अगर गाने का शौकीन होता तो जहां तक उसकी ड्यूटी होती वहां तक का उनका सफर मुफ्त में हो जाता. अगर नहीं होता तो उन्हें उतरना पड़ता और फिर किसी और पर यह दांव आजमाना पड़ता.
इसी दौरान वे जालंधर पहुंचे और करीब एक साल तक वहां ध्रुपद सीखा. यहीं से भीमसेन जोशी के गायन में ध्रुपद की गंभीरता समाई. फिर किसी ने उन्हें बताया कि सच्चे गुरू की उनकी तलाश उनके अपने घर यानी धारवाड़ जाकर ही पूरी होगी जहां रामभाऊ कुंडगोलकर यानी सवाई गंधर्व का बसेरा भी है. वे लौटे और अब्दुल करीम खां के सर्वश्रेष्ठ शिष्य कहे जाने वाले सवाई गंधर्व के शिष्य बन गए. 19 साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला सार्वजनिक गायन किया. धीरे-धीरे सवाई गंधर्व के इस शिष्य की कीर्ति देश-दुनिया में फैलने लगी. 19वीं सदी में शुरू हुए किराना घराने को भीमसेन जोशी ने 20वीं सदी में असाधारण ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया और अपने घराने का सबसे चमकदार नाम बन गए.
लेकिन आकाश पर पहुंचकर भी उनकी वह जमीन छूटी नहीं जिसे महानता की एक जरूरी शर्त कहा जाता है. किराना घराने का सबसे मशहूर नाम होने के बावजूद वे हमेशा कहते थे कि उनके घराने की सबसे बड़ी गायिका उनकी गुरू-बहन गंगूबाई हंगल हैं. किस्सा है कि एक बार उन्होंने गंगूबाई से कहा था, ‘बाई, असली किराना घराना तो तुम्हारा है. मेरी तो किराने की दुकान है.’ एक साक्षात्कार में प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक राजन मिश्र उस संगीत समारोह को याद करते हैं जिसमें एक तानपुरा वादक कोशिशों के बाद भी सही सुर नहीं पकड़ पा रहा था. भीमसेन जोशी अपनी जगह से उठे और खुद सही सुर लगाकर काफी देर तक तानपुरे पर संगत देते रहे.
संगीत साधना में भीमसेन जोशी जितने गंभीर दिखते थे व्यवहार में उतने ही विनोदप्रिय थे. वे अक्सर अपने गले पर उस्ताद अमीर खां के प्रभाव और उनसे अपनी मित्रता का जिक्र करते थे. एक बार किसी संगीत-प्रेमी ने उनसे कहा कि आपका गायन तो महान है लेकिन अमीर खां समझ में नहीं आते. भीमसेन जोशी तपाक से बोले, ‘ठीक है, तो आप मुझे सुनिए और मैं अमीर खां साहब को सुन लेता हूं.’
इसी तरह एक और किस्सा है कि एक बार उन्हें और महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई को एक ही विमान से यात्रा करनी थी. मोरारजी ने उन दिनों राज्य में शराबबंदी लागू करवा रखी थी और भीमसेन जोशी शराब के शौकीन थे. पंडितजी ने जिद पकड़ ली कि वे मोरारजी के बगल वाली सीट पर ही बैठेंगे. जहाज के उड़ते ही उन्होंने जाम भर लिया और शरारत भरी मुस्कराहट के साथ बोले, ‘शराबबंदी कानून जमीन पर लागू होता है, आसमान में नहीं. शायद इसीलिए उसे लॉ ऑफ द लैंड कहते होंगे.’
11 साल की उम्र में संगीत के लिए घर से भागकर जगह-जगह भटकने वाले भीमसेन जोशी के अंदर वह फक्कड़पन ताउम्र रहा. वे अक्सर जिंदगी से चुहल करते रहते थे. कई बार ऐसा भी हुआ कि संगीत कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए वे रेल या हवाई जहाज से नहीं अपनी कार से जाते और वह भी सैकड़ों किलोमीटर का सफर करते हुए. उस पर तुर्रा यह कि कार वे खुद ही चलाते थे. इस दौरान कई बार वे मरते-मरते बचे और ऐसे किस्से वे ठहाकों के साथ सुनाते.
फिर से संगीत पर लौटें तो भीमसेन जोशी ने रागदारी की शुद्धता से समझौता किये बगैर उसमें कई नये प्रयोग किए और इस तरह शास्त्रीय संगीत का एक नया श्रोता वर्ग पैदा किया. चर्चित साहित्यकार मंगलेश डबराल के शब्दों में कहें तो ‘उनकी राग-संरचना इतनी सुंदर, दमखम वाली और अप्रत्याशित होती थी कि अनाड़ी श्रोता भी उसके सम्मोहन में पड़े बिना नहीं रह सकता था.
इन श्रोताओं ने उन्हें सिर माथे पर बिठाया. देश ने भी जिसने उन्हें कई सम्मान दिए. इनमें 2008 में मिला सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न शामिल है. लंबी अस्वस्थता के बाद 24 जनवरी 2011 को 88 साल की उम्र में उनका देहावसान हो गया लेकिन, जिन सुरों को अविनाशी कहा जाता है उनके जरिये भीमसेन जोशी संगीत प्रेमियों के दिलों में हमेशा रहेंगे.
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