प्रधानमंत्री जी,
आपकी सरकार का तीसरा बजट पेश करते हुए श्री सुरेश प्रभु को इस कटु जमीनी हकीकत का अहसास होगा कि रेलवे गरीब जनता और अपने ग्राहकों-कर्मचारियों के लिए अच्छे दिन लाने में नाकाम रही है. मीडिया में आ रही लंबी-चौड़ी बयानबाजी के ठीक उलट रेलवे में चारों तरफ निराशा व हताशा का माहौल है. साधारणतया रेलकर्मी शेखी बघारने में कम और ठोस नतीजे दिखाने में ज्यादा विश्वास करते हैं. अपना पहला बजट पेश करते हुए श्री प्रभु इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ थे कि भारतीय रेल एक ऐसे दुश्चक्र में फंस चुकी है, जिसमें यात्री एवं माल भाड़े बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन रेलवे का व्यापार घटता जा रहा है. लागत बढ़ रही है, लेकिन मुनाफा (मार्जिन) और बाजार में हिस्सेदारी कम हो रही है. फलस्वरूप रेलवे की उत्पादकता और लाभप्रदता उत्तरोत्तर बिगड़ती जा रही है.
इस वित्तीय वर्ष में तो रेलवे किसी तरह अपना घर खर्च निकाल लेगी, लेकिन अगले साल अपने घर खर्च की भरपाई करने के लिए 30 हजार करोड़ रुपये का कटोरा लेकर वित्त मंत्रालय के दरवाजे खटकाने होंगे.
इन कटु तथ्यों को जानते हुए भी व्यावहारिक सुझाव देने वाले समझदार लोगों की आवाज को दबाकर सिर्फ आपको खुश करने की नीयत से ऐसे लक्ष्य निर्धारित किए गए जिन्हें प्राप्त करना नामुमकिन था. कोई आश्चर्य नहीं कि रेल बजट में निर्धारित आमदनी के अनुमान “मुंगेरीलाल के सपने” की तरह साबित हुए हैं. रेलवे के गौरवशाली इतिहास में पहली बार बजट अनुमान की अपेक्षा यातायात आमदनी अनुमान से 11 प्रतिशत यानी 17 हजार करोड रुपये कम रहने की संभावना है. यात्री एवं माल यातायात में तीन प्रतिशत की ऋणात्मक वृद्धि दर्ज की जा रही है जबकि बजट 5 से 7 प्रतिशत की वृद्धि दर पर निर्धारित किया गया था. फलस्वरूप यातायात आमदनी 17 प्रतिशत के लक्ष्य के विरुद मात्र छह प्रतिशत बढ़ी है जो कि यात्री एवं मालभाड़ों में की गई औसत वृद्धि से भी कम है.
इस वित्तीय वर्ष में तो रेलवे जैसे-तैसे अपना घर खर्च निकाल लेगी, लेकिन अगले वर्ष 7वें वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद उसे अपने घर खर्च की भरपाई करने के लिए 30 हजार करोड़ रुपये का कटोरा लेकर वित्त मंत्रालय के दरवाजे खटकाने होंगे. यद्यपि वित्त मंत्रालय ने अगले तीन-चार वर्षों के लिए सालाना 30 हजार करोड़ रुपये की रेवेन्यू ग्रांट की रेलवे की गुहार सिरे से खारिज कर दी है, लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि रेलवे का चक्का सतत रूप से घुमाने के लिए 30 हजार करोड़ रुपये की ग्रांट भी काफी नहीं होगी. रेलवे को अपनी जर्जर संपत्तियों को बदलने और यातायात को सुगम बनाने के लिए जरूरी काम करने के लिए इस ग्रांट के अलावा 30 हजार करोड़ रुपये की अतिरिक्त ग्रांट की भी जरूरत होगी. 60 हजार करोड़ रुपये की इस कुल ग्रांट के अलावा वित्त मंत्रालय को वर्तमान में चल रहे पूंजीगत कार्यों को पूरा करने के लिए इस वर्ष की भांति 40 हजार करोड़ रुपये के ‘ग्रॉस बजटरी सपोर्ट’ की व्यवस्था भी करनी होगी.
रेलवे ने अपने गौरवशाली इतिहास में अनेक संकट झेले हैं. लेकिन इन विपत्तियों को बहादुरी के साथ एक चुनौती के रूप में स्वीकार कर हर बार रेलवे पहले से ज्यादा मजबूत होकर उभरी है
इन अकाट्य तथ्यों से यह साफ है कि रेलवे दिवाली (वर्ष 2007-08 में रेलवे का ऑपरेटिंग कैश मुनाफा छह अरब अमेरिकी डालर एवं आपरेटिंग रेशियो 76 प्रतिशत था.) से दिवाला (2016-17 में ऑपरेटिंग कैश लॉस पांच अरब डॉलर एवं ऑपरेटिंग रेशियो 120 फीसदी) की ओर बढ़ रही है.
रेलवे ने अपने गौरवशाली इतिहास में अनेक संकट झेले हैं. लेकिन इन विपत्तियों को बहादुरी के साथ एक चुनौती के रूप में स्वीकार कर हर बार रेलवे पहले से ज्यादा मजबूत होकर उभरी है. ऐसे ही एक वित्तीय संकट के बादल 2001 में रेलवे पर मंडराए थ. जब राकेश मोहन कमेटी ने भविष्यवाणी की थी कि धीमी विकास दर के पुराने ढर्रे पर चलकर भारतीय रेल अगले पंद्रह सालों में 61 हजार करोड़ रुपये का दिवाला घोषित करेगी. लेकिन 2004 से 2009 के दौरान रेलवे ने ऐसी सभी भविष्यवाणियों को गलत साबित कर दिया और नाटकीय तरीके से अपना वित्तीय कायाकल्प करने में कामयाब रही.
रेलवे के कायाकल्प की तत्कालीन रणनीति को सिर्फ इन चंद शब्दों में बयान किया जा सकता है- व्यापार बढ़ाओ, प्रति इकाई लागत के अलावा यात्री और मालभाड़े कम करो, प्रॉफिट मार्जिन और बाजार हिस्सेदारी बढ़ाओ और अरबों डालर का मुनाफा कमाओ. यह रणनीति आम आदमी, रेलकर्मी और ग्राहकों के हितों को केंद्रविंदु में रखकर उन्हें रेलवे की तरक्की में भागीदार बनाने के मूल उद्देश्य से प्रेरित थी. ढुलाई से जुड़ी रणनीति को मात्र तीन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है- पहले से तेज, भारी और लंबी ट्रेनें. इन शब्दों ने रेलवे को सालाना दो-दो अरब डालर कमा कर दिए.
रेलवे के कायाकल्प की तत्कालीन रणनीति यह थी- व्यापार बढ़ाओ, प्रति इकाई लागत के अलावा यात्री और मालभाड़े कम करो, प्रॉफिट मार्जिन और बाजार हिस्सेदारी बढ़ाओ और अरबों डालर का मुनाफा कमाओ.
हमारी मार्केटिंग रणनीति ‘डायनैमिक, डिफरेंशियल और मार्केट ड्रिवेन’ के मूलमंत्र पर आधारित थी. इन रणनतियों को लागू करने के लिए रेलवे के तत्कालीन नेतृत्व ने रेलवे के भविष्य पर लगाए जा रहे प्रश्नचिन्हों पर पूर्णतया विराम लगाते हुए रेलकर्मियों को विश्वास में लिया. रेलकर्मियों का भरोसा जगने के बाद रेलवे के विभिन्न विभागों की आपसी टीम बनाकर रेलवे के मौजूदा संसाधनों का उचिततम उपयोग करने और ऑपरेशन से जुड़े हर मसले को आपसी तालमेल के साथ सुलझाने का तरीका अपनाया गया. फलस्वरूप रेलवे के व्यापार, उत्पादकता और ऑपरेशनल कार्यकुशलता में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई.
हमें यह स्वीकार करना होगा कि रेलवे के मौजूदा वित्तीय हालात पहले के सभी संकटों से काफी गंभीर हैं. इसलिए इस समस्या का सामना करने में रेलवे को काफी समझदारी से काम लेना होगा क्योंकि नीतिगत स्तर पर उठाए गए किसी भी गलत कदम की रेलवे को भारी कीमत अदा करनी पड़ सकती है और स्थिति देखते-देखते नियंत्रण से बाहर हो सकती है. इस परिप्रेक्ष्य में रेलवे द्वारा हाल में लिए गए दो नीतिगत निर्णयों का विशेष रूप से जिक्र करना चाहूंगा. पहला, रेलवे ने मात्र कर्ज बटोरने को ही अपने संकट से बाहर आने की रामबाण आषधि समझ लिया है. यह सर्वविदित है कि रेलवे जैसे आधारभूत ढांचे से जुड़े व्यवसाय में फिक्स्ड कॉस्ट अधिक और वैरिएबल कॉस्ट कम होने के कारण आपरेटिंग लेवरेज सामान्य व्यवसायों की अपेक्षा काफी अधिक होता है. एक बार फिक्स्ड कॉस्ट की भरपाई हो जाने यानी ब्रेक इवन प्वाइंट प्राप्त कर लेने के बाद व्यापार में की गई अतिरिक्त वृद्धि का सीधा फायदा रेलवे के मुनाफे में आशातीत वृद्धि के रूप में सामने आता है.
हमें यह स्वीकार करना होगा कि रेलवे के मौजूदा वित्तीय हालात पहले के सभी संकटों से काफी गंभीर हैं. इसलिए इस समस्या का सामना करने में रेलवे को काफी समझदारी से काम लेना होगा
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हाल-फिलहाल में लागू होने वाले वेतन आयोग के बाद रेलवे की फिक्स्ड कॉस्ट 30 हजार करोड़ रुपये बढ़ने से रेलवे अपने ब्रेक इवेन प्वाइंट (न घाटा, न मुनाफा) से 30 हजार करोड़ रुपये दूर रह जाएगी. ऐसे समय में एलआइसी और जायका जैसी वित्तीय संस्थाओं से 40 अरब डालर कर्ज के किए गए इकरारनामे के विरुद्ध अगर 25 प्रतिशत राशि का कर्ज भी वास्तव में लिया जाता है तो ब्रेक इवन प्वाइंट पर इस कर्ज को अदा करने वाली अतिरिक्त 10 हजार करोड़ रुपये की राशि के कारण ऑपरेटिंग कैश लॉस बढ़कर 40 हजार करोड़ रुपये हो जाएगा. इसलिए हाई आपरेटिंग लेवरेज व फाइनेंशियल लेवरेज को घातक दुधारी तलवार माना जाता है. बुलेट ट्रेन जैसी गैर लाभप्रद एवं घाटे की योजनाओं के लिए ऐसे समय में कर्ज लेना जबकि रेलवे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है, अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने से ज्यादा कुछ नहीं है.
आजकल रेलवे पलक झपकते ही बात-बात पर समितियों का गठन कर रही है. इन समितियों के सुझावों से घाटे वाली उत्पादन इकाइयों एवं रेल सेवाओं को बंद करने, रेलकर्मियों की छंटनी करने तथा रेलवे का विभाजन और निजीकरण कर उन्हें देश और विदेश के पूंजीपतियों के हवाले करने की अफवाहों को बल मिल रहा है. जिससे रेलकर्मियों में इस बात को लेकर भय व्याप्त है कि कल उनकी नौकरी बचेगी अथवा नहीं. उन्हें वेतन और पेंशन मिलेगी या नहीं. इससे रेलकर्मियों का मनोबल, जो कि पहले ही गिरा हुआ था, मायूसी की कगार पर पहुंच गया है. इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि ऐसी अनाप-शनाप बातें एक सरकारी प्रतिष्ठान के रूप में रेलवे के भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा रही हैं. इन कयासों को और हवा मिले इससे पहले ही इन पर लगाम कसने की जरूरत है.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रेलवे एक जीवनशैली है, और देश की प्राणदायी रेखा है. यदि रेलवे की धड़कन एक दिन के लिए भी रुकती है तो एक तरह से भारत की धड़कन ही रुक जाएगी.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रेलवे एक जीवनशैली है और देश की प्राणदायी रेखा है. यह देश की गरीब जनता एवं रोजगार की तलाश में अपना घरबार छोड़ व हजारों किलोमीटर की यात्रा कर दूसरे राज्यों में जाने वाले मजदूरों की यात्रा का एकमात्र किफायती साधन है. यदि रेलवे की धड़कन एक दिन के लिए भी रुकती है तो एक तरह से भारत की धड़कन ही रुक जाएगी. तब न तो पॉवर प्लांट को कोयला मिलेगा और न ही राशन का खाद्यान्न एक राज्य से दूसरे राज्य में पहुंचेगा. भगवान न करे एमटीएनएल और एयर इंडिया की भांति अगर रेलवे को भी निष्प्राण होने दिया जाता है तो स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे बड़ी त्रासदी होगी. यदि इस कल्पनातीत महासंकट को रोकने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो यह आपकी सरकार को मिले ऐतिहासिक जनादेश के साथ विश्वासघात का जीवंत स्मारक बन जाएगा.
प्रधानमंत्री महोदय, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. मुझे पूरा विश्वास है कि रेलवे की वित्तीय स्थिति को फिर से पटरी पर लाया जा सकता है. रेलवे में अभी भी असीम संसाधन एवं संभावनाएं हैं जिनका दोहन कर इसे फिर से सोने की चिड़िया बनाया जा सकता है. रेलवे जर्सी गाय की तरह है. आपकी सरकार ने इस दुधारू गोमाता को ना तो ठीक से दुहा है और न ही प्यार-मुहब्बत से उसकी सेवा-सुश्रूषा की है. यही वजह है कि यह दुधारू गाय बीमार हो गई है. यदि आपकी सरकार अपनी गरीब, ग्राहक व कर्मचारी विरोधी नीतियों का परित्याग कर दे तो यह जर्सी गाय फिर से तंदुरुस्त होकर भरपूर दूध देने लगेगी और 2004-09 की भांति इस वित्तीय संकट से बाहर निकल आएगी.
पहली शर्त है कि आपकी सरकार रेलवे के कायाकल्प के लिए समावेशी सुधार की ऐसी रणनीति अपनाए जिससे जनता, ग्राहकों, व्यापार एवं उद़्योग, रेलकर्मियों और देश की अर्थव्यवस्था सभी को लाभ हो.
लेकिन यह पहली शर्त है कि आपकी सरकार रेलवे के कायाकल्प के लिए समावेशी सुधार की ऐसी रणनीति अपनाए जिससे जनता, ग्राहकों, व्यापार एवं उद़्योग, रेलकर्मियों और देश की अर्थव्यवस्था सभी को लाभ हो. ऐसा करने के लिए ख्याली पुलाव पकाने वाली और बात-बात में रेलवे का निजीकरण करने का सुझाव देने वाली दर्जनों समितियों के बजाय रेलवे के कोर आपरेटिंग परफारमेंस पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है. इस रणनीति के क्रियान्वयनन के लिए टि्वटर के बजाय ट्रेनों के संचालन अर्थात कोर परफारमेंस पर ध्यान देने का संकल्प दिखाना होगा. नेतृत्व को आज, अभी और इसी बजट में हरकत में आना होगा और टीवी स्टूडियो या सेमिनारों में शेखी बघारने के बजाय माल यातायात के आवागमन पर हर मिनट खबर रखने वाले कंट्रोल रूम (एफओआइएस) एवं व्यापार बढ़ाकर मुनाफा कमाने और अर्जित राशि का लाभकारी योजनाओं में निवेश करने की रणनीति बनाने की बैठकों में भाग लेना होगा.
रेलवे की कामयाबी हमेशा ही काबिल एवं जुझारू रेलकर्मियों की कठिन मेहनत के बूते आई है. लेकिन इसके लिए नेतृत्व को रेलवे के व्यापारिक एवं सामाजिक उद्देश्यों के बीच लाभप्रद संतुलन स्थापित कर एक ऐसे उत्प्रेरक की भूमिका निभानी होगी जिससे इन निष्ठावान रेलकर्मियों को कुछ कर दिखाने का अवसर मिले. मुझे उम्मीद ही नहीं, पूरा विश्वास है कि पहले की तरह इस बार भी रेलकर्मी सर्वनाश एवं प्रलय की इन सारी भविष्यवाणियों को पूरी तरह गलत साबित कर देंगे और रेलवे एक बार फिर इस भीषण वित्तीय संकट से विजेता के रूप बाहर निकल जाएगी.
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