खय्याम के संगीत को अगर एक शब्द में समेटना हो तो वह होगा सुकून. यह उनके संगीत में छिपा सुकून ही है कि आप उनका कोई गाना सुन रहे हों या गुनगुना रहे हों, अपने आप ही आंखें बंद कर लेने का मन होता है. खय्याम की रचनाओं के बारे में कहा जाता है कि वे गायक और श्रोता, दोनों को ही एक अलग ही स्तर पर ले जाती हैं.
खय्याम का पूरा नाम मोहम्मद जहूर खय्याम हाशमी था. उनका जन्म अविभाजित पंजाब में नवांशहर जिले के राहोन गांव में 18 फरवरी 1927 को हुआ था. खय्याम से बडे़ तीन और भाई थे. घर में कविता और संगीत का माहौल था जिस कारण किसी ने भी उनके संगीत सीखने पर एतराज नहीं किया. संगीत की शुरुआती तालीम खय्याम ने उस दौर के मशहूर संगीतकार पंडित हुस्नलाल भगतराम और पंडित अमरनाथ से हासिल की.
इसके बाद फिल्मों में काम करने का सपना लिए वे लाहौर पहुंचे. यहां वे उस जमाने में पाकिस्तान के बड़े शास्त्रीय गायक और फिल्म संगीतकार बाबा चिश्ती से मिले. उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर बाबा चिश्ती ने उन्हें अपने सहायक के तौर पर रख लिया. शर्त यही थी कि उन्हें कोई पैसा नहीं मिलेगा. बस उनके रहने और खाने का इंतजाम हो जाएगा. छह महीने तक उनके साथ रहने के बाद वे 1943 में लुधियाना आ गए और रोजी-रोटी के लिए कोई दूसरा काम तलाशने लगे.
इस बीच खय्याम को फौज में नौकरी मिल गई. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान वे दो साल तक फौज में सिपाही रहे. थोड़े पैसे कमाने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और संगीतकार बनने का अपना सपना पूरा करने के लिए बंबई आ गए. यहां कुछ समय बाद 1948 में पहली बार उन्हें हीर-रांझा फिल्म में संगीत देने का मौका मिला. इसके लिए रहमान वर्मा नाम के एक दूसरे संगीतकार के साथ उन्होंने जोड़ी बनाई थी. शर्माजी-वर्माजी नाम की इस जोड़ी ने पांच और फिल्मों में भी संगीत दिया.
1953 में आई फिल्म फुटपाथ में उन्हें पहली बार अकेले काम करने का मौका मिला. फिल्म निर्देशक जिया सरहदी की सलाह पर इस फिल्म में उन्होंने पहली बार खय्याम नाम से संगीत दिया. इसके बाद उनकी कुछ और फिल्में भी आईं, लेकिन उनसे खय्याम को कोई खास चर्चा नहीं मिली. 1958 में राजकपूर अभिनीत फिल्म फिर सुबह होगी ने उन्हें मशहूर बनाया.
दो बार ऐसे दौर भी आए जब खय्याम मुख्यधारा से दूर हो गए थे, लेकिन दोनों बार उन्होंने धमाकेदार वापसी की. पहली बार ऐसा 1976 में हुआ जब यश चोपड़ा की फिल्म कभी-कभी ने उन्हें फिर चर्चा का विषय बना दिया. दूसरी बार ऐसा 1982 में हुआ जब मुजफ्फर अली की फिल्म उमराव जान ने उनकी प्रसिद्धि को एक नए स्तर तक पहुंचा दिया.
कुछ साल पहले खय्याम ने अपनी सारी संपत्ति दान करने की घोषणा की थी. करीब 12 करोड़ की इस संपत्ति से उन्होंने फिल्म जगत के जरूरतमंद और उभरते संगीतकारों के लिए एक ट्रस्ट बनाने का फैसला किया था. खय्याम का कहना था कि देश ने उन्हें बहुत कुछ दिया है और अब वे देश को कुछ लौटाना चाहते हैं.
खय्याम के दस चुनिंदा नगमे.
- आसमां पे है खुदा फिर सुबह होगी (1958)
- तुम अपना रंजो-गम शगुन (1964)
- बहारों मेरा जीवन भी संवारो आखिरी खत (1966)
- मैं पल दो पल का शायर हूं कभी-कभी (1976)
- मोहब्बत बड़े काम की चीज है त्रिशूल (1978)
- आजा रे, आजा रे ओ मेरे दिलबर आजा नूरी (1979)
- हजार राहें फिल्म थोड़ी सी बेवफाई (1980)
- इन आंखों की मस्ती के उमराव जान (1981)
- दिखाई दिए यूं बाजार (1982)
- एक दिले नादां रजिया सुल्तान (1983)
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