तकरीबन तीन लाख की आबादी वाले भक्तपुर में नब्बे प्रतिशत मकानों को भूकंप से किसी न किसी तरह का नुकसान पहुंचा है.
नेपाल के मानचित्र पर भक्तपुर हेरिटेज सिटी था, अब एक आंकड़ा भर है. जिस दरबार स्क्वेयर और न्यातापोला मंदिर को देखने के लिए दुनिया भर से लोग जुटते थे, वहां अब दुनिया भर की राहत टुकड़ियां अलग-अलग तंबुओं में बैठी नज़र आती है. तकरीबन तीन लाख की आबादी वाले इस ऐतिहासिक शहर के नब्बे प्रतिशत मकानों को 25 अप्रैल को आए भूकंप से किसी न किसी तरह का नुकसान पहुंचा है. पूरी की पूरी गलियां तबाह हो गई हैं.शहर के शिविरों में रह रहे लोग अब बोरे लेकर अपने-अपने मकानों के मलबों में से कुछ न कुछ ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं – पासबुक, ज़रूरी काग़़ज़, सर्टिफिकेट, चश्मे, जूते, स्वेटर, दो-एक कपड़े. लेकिन कई-कई फुट धंस गए मकानों में ईंटों और टूटे हुए दरवाज़ों के अलावा कुछ हाथ नहीं आता. मलबे पर खड़ा होना भी खतरे से खाली नहीं. जब मकान ही ढह गया तो मलबा कहां रहम खाएगा?
जिस निजता और स्पेस को लेकर इंसान इतनी हाय-तौबा मचाता है, वही निजता खुली जगह में टेंट के नीचे आ गई है. स्पेस पांच फुट की जगह भर है, किसी तरह रात गुज़ार लेने के लिए.कुदरत बचाए रखती है तो मां होती है. तबाह करती है तो कहीं का नहीं छोड़ती. भक्तपुर में कुछ घर ऐसे हैं जो एक ओर से साबुत खड़े हैं और दूसरी ओर से पूरी की पूरी दीवार ने ढहकर उन्हें नंगा कर दिया है जैसे. घरों में झांकना आसान हो गया है. जिस निजता और स्पेस को लेकर इंसान इतनी हाय-तौबा मचाता है और मकान बनाता है, वही निजता खुली जगह में टेंट के नीचे आ गई है. स्पेस पांच फुट की जगह भर है, किसी तरह रात गुज़ार लेने के लिए.
अपनों की लाशों को निकलते देखना ऐसा सदमा है, जिसका यहां फिलहाल कोई मतलब नहीं. जो ज़िन्दगी बाकी रह गई है, उसे सहेज लेना अभी बड़ी ज़िम्मेदारी है. जो साथ है, ठीक है. जो नहीं है, उसके लिए शोक मनाने का वक्त नहीं.
इसलिए गली के मुहानों पर सब्ज़ी बिकने लगी है, राशन की दुकानें खुलने लगी हैं. दरबार स्क्वेयर से थोड़ी दूर बने बाज़ार की दुकानों में जूते और कपड़े देख रहे राहतकर्मियों को देखना भी अलग सी राहत देता है. आपदा पर्यटन ही सही, ज़िन्दगी के वापस पटरी की ओर बढ़ने का कोई एक हल्का सा संकेत तो है.
इंसान की जिजीविषा और ख़़ुद को बचाए रखने की ताक़त उसके अपने अनुमान से कहीं बढ़कर होती है. टुकड़ियों में बंटे भक्तपुर के लोगों को देखकर इस बात का पुख्ता यकीन हो जाता है.इंसान की जिजीविषा और ख़़ुद को बचाए रखने की ताक़त उसके अपने अनुमान से कहीं बढ़कर होती है. टुकड़ियों में बंटे भक्तपुर के लोगों को देखकर इस बात का पुख्ता यकीन हो जाता है. जो मदद और राहत आती रहेगी, उसकी परवाह किए बिना अब लोगों ने अपने अपने तरीके से ज़िन्दगी के टुकड़े समेटने शुरू कर दिए हैं.
लेकिन जीना फिर भी मुश्किल है.
जहां बस्तियां हैं और उन तक पहुंचने की जैसी भी बची हों सड़कें भी, वहां तबाही के बावजूद एक साझा उम्मीद है. कम से कम दस हाथ मिलकर ईंटों को उठाने और मलबे को साफ करने का काम तो कर रहे हैं. परेशानी वहां हैं जहां दूर-दूर तक कोई नहीं. नेपाल के कुल तेरह बुरी तरह प्रभावित ज़िलों में काठमांडू घाटी के तीन ज़िले – काठमांडू, ललितपुर और भक्तपुर - ही ऐसे हैं जहां थोड़ा आसानी से पहुंचा जा सकता है. दूर-दराज के जिलों और गांवों तक पहुंचना एक जंग से कम नहीं.
दुनियाभर से 62 बचाव टीमें पहुंची थीं यहां अगले दिन. सब मिलकर सिर्फ 15 लोगों को ज़िंदा निकाल पाई. ये टीमें अब वापस लौटने लगी हैं.तबाही वहां भी इतनी ही है लेकिन उम्मीद बहुत कम. राहत के काम में लगे नेपाल के पर्यटन विभाग के महानिदेशक तुलसीप्रसाद गौतम बताते हैं कि जिन गांवों तक सिर्फ हेलीकॉप्टरों से पहुंचा जा सकता है वहां तक जाने के लिए साधन भी नहीं हैं. अभी पूरा ध्यान घायलों को किसी तरह अस्पताल पहुंचाने और मेडिकल टीमें वहां पहुंचाने पर है. लेकिन ज़रूरत अगर ताड़ का पेड़ है तो मदद उसकी जड़ों के पास फैला दिए गए तिल के बहुत सारे बीज. जाने कब अंकुर फूटे, जाने कब उनका ताड़ बने!
चारों ओर से मदद आई है. दुनियाभर से 62 बचाव टीमें पहुंची थीं नेपाल में भूकंप के अगले दिन. सब मिलकर सिर्फ 15 लोगों को ज़िंदा निकाल पाईं. ये टीमें अब वापस लौटने लगी हैं. किसी किस्म के मैनेजमेंट के अभाव में इन्हें समझ ही नहीं आ रहा कि काम शुरू कहां से करना है. एक हफ्ते बीत चुके हैं और नुकसान की ठीक-ठीक मैपिंग भी नहीं हुई है. राहत का इतना सामान आ चुका है कि नेपाली सरकार ख़ुद स्वीकार कर रही है कि अब और नहीं. पहले इतना ही लोगों तक पहुंचा दिया जाए. नेपाली सेना और पुलिस स्थानीय लोगों के साथ मिलकर जूझ रही है, जितना जूझ सकती है. उसे तो जूझना ही है.
ऐसा नहीं कि मदद और पुनर्निर्माण के लिए ज्यादा लोग और संसाधन नहीं चाहिए. लेकिन हर हाथ से उसकी क्षमता और स्किल के हिसाब से काम लिया जा सके, हर संसाधन को सही से इस्तेमाल किया जा सके, यह अपने आप में एक जटिल काम है. शायद लोगों को भी बाहरी और घर की भी बाहरी मदद पर बहुत भरोसा नहीं. इसलिए जहां-जहां मुमकिन हो सका है, सब अपनी मदद में जुटे हैं. यह सवाल पूछने की हिम्मत भी बाकी नहीं रही कि जब वोट मांगना था तो दुर्गम रास्तों पर चलकर पहाड़ी गांवों तक पहुंचना कैसे आसान हो जाता है. और जब ज़रूरत पड़ती है तो वही रास्ते इतने दुर्गम और दुरुह कैसे हो जाते हैं.
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